Wednesday 23 February, 2011

ऑस्‍कर वाइल्‍ड की क्लासिक कहानी - बुलबुल और गुलाब

यह कहानी मेरी प्रिय प्रेम कहानियों में से एक है। पिछले दिनों प्रेम दिवस के पूर्व रविवार 13 फरवरी, 2011 को यह राजस्‍थान पत्रिका के रविवारीय संस्‍करण में प्रकाशित हुई। इस लंबी कहानी को अखबार के लिए कुछ संक्षिप्‍त किया गया है।

"उसने कहा है कि अगर मैं उसके लिए एक लाल गुलाब ले आऊँ तो वह मेरे साथ नृत्य करेगी! लेकिन मेरे बगीचे में तो एक भी लाल गुलाब नहीं है" अपने आप से बात करते हुए वह नौजवान रोने लगा।

बगल के दरख़्त पर घौसले में बैठी बुलबुल ने उसे रोते सुना और पत्तियों की तरफ देख वह आश्चर्यचकित हो उठी । वह रो रहा था और उसकी खूबसूरत आँखों के प्याले आँसुओं के मोतियों से भर गए! "ओह, जिंदगी में कभी-कभी खुशियाँ कितनी छोटी-छोटी चीजों पर टिकी होती हैं ! मेरा सारा ज्ञान और दर्शनशास्त्र का अध्ययन बेकार है। एक अदने से लाल गुलाब की चाहत ने मेरी जिंदगी नरक बना दी है।"

"कम से कम इस दुनिया में एक सच्चा प्रेमी तो है।" बुलबुल चहक उठी, "मैं रातों में जिस अनजान प्रेमी के लिए गाती थी, चांद-तारों को जिसकी कहानी सुनाती थी, वो आज मुझे मिल ही गया। इसके बाल लाल गुलाबी पारदर्शी फूल जैसे हैं, और होंठ जैसे सुर्ख गुलाब, ठीक वैसे ही जैसी उसकी चाहत है। लेकिन चेहरा कुम्हलाया हुआ, कांतिहीन, हाथी दांत जैसा पीला। दुःख और संताप की स्पष्ट छाप इसके माथे पर छपी है।"

नौजवान बुदबुदाया, ‘कल राजकुंवर ने नृत्य की शाम सजाई है। वो भी वहां होगी। काश अगर मैं उसे सुर्ख गुलाब ला दूं तो उसे अपनी बाँहों में भर सकूंगा , और वह मेरे काँधों पर अपना सर टिकाए रात भर मेरे साथ नाचेगी। लेकिन मेरे बगीचे में कोई सुर्ख गुलाब नहीं है, इसलिए मुझे अकेले ही बैठना होगा, और वह बाय कहती हुई मेरे करीब से गुज़र जायेगी।"

"यकीनन यह सच्चा प्रेमी है" , बुलबुल ने कहा। "इसके कष्ट पर मैं क्या गाऊँ ? क्या इसके दर्द में मेरा गाना वाजिब होगा? सच में प्रेम है ही ऐसी निराली चीज! यह मोती-माणिक से भी बड़ा है, ना तो इसे खरीद सकते और ना ही यह हाट-बाज़ारों में मिल सकता है।"

"साजिंदे गलियारे में अपनी जगहें लेते चले जायेंगे", नौजवान ने खुद से कहा, "वे अपने वाद्ययंत्रों के तंतुओं को छेड़ना शुरू करेंगे, और मेरी महबूबा उनकी धुनों पर तल्लीन होकर नाचने लगेगी। वह इस कदर नाचेगी कि उसके पांव जमीन को छुएंगे तक नहीं, और दरबार में मौजूद तमाम लोग अपनी चटकीली वेशभूषाओं में उसके चारों ओर मंडरा रहे होंगे। लेकिन वह मेरे साथ नहीं नाचेगी क्योंकि उसे देने के लिए लाल गुलाब जो नहीं है मेरे पास।" इतना कह कर वह निढाल हो घास पर गिर गया और अपना मायूस चेहरा हाथों में लेकर जार-जार रोने लगा।

हरे गिरगिट, सूर्य किरण के गिर्द मंडराती एक तितली और गुलबहार के फूल तक ने उस नौजवान से पूछा, ‘तुम क्यों रो रहे हो?’
"वह एक लाल गुलाब के लिए रो रहा है।" बुलबुल ने कहा।
"सिर्फ एक लाल गुलाब के लिए !!" सब चिल्लाये ! "कितना बेहूदा है यह रोना।" और नन्हा गिरगिट ठठा कर हँस पड़ा।

लेकिन बुलबुल उसके संताप का रहस्य जान चुकी थी। उसने अपना गीत बंद कर दिया और उस गूढ़ प्रेम के विषय में सोचने लगी। अचानक वह अपने साँवले बादामी परों को फैला कर आसमान में बहुत ऊँचे उड़ चली।

दरख्‍तों के पार एक घास के मैदान के बीचो-बीच एक खूबसूरत गुलाब का पौधा था। बुलबुल ने देखा और उसकी ओर उड़ गयी।

"मुझे एक लाल गुलाब दो" वह गिडगिडायी , "बदले में तुम्हारे लिए मैं अपना सबसे मीठा गीत दूंगी!"

लेकिन पौधे ने अपना सिर हिला दिया ! "मेरा गुलाब तो सफ़ेद हैं" उसने जवाब में कहा; "उतना ही सफ़ेद जितना समंदर का झाग होता है , और यह तो पहाड की चोटियों पर पड़ी बर्फ से भी ज्यादा सफ़ेद है ! लेकिन तुम धूपघड़ी के पास मेरे भाई के यहां जाओ, शायद वहां तुम्हारी चाहत पूरी हो जाए।"

जल्दी से उड़ती हुई बुलबुल उस गुलाब के पास गई और अपनी प्रार्थना दोहराई। गुलाब के इस पौधे ने कहा, ‘मेरे पास तो जलपरियों के बालों जैसे पीले फूल होते हैं। तुम्हें छात्रों की खिड़की के पास वाले मेरे भाई के यहां जाना होगा, शायद वह तुम्हारी मदद करे।’

बुलबुल ने उड़ान भरी और खिड़की के नीचे वाले गुलाब के पौधे के पास जाकर अपनी चाहत बताने लगी। पौधा बोला, ‘मेरे पास मूंगे से भी कई गुना लाल सुर्ख गुलाब हैं, लेकिन ठण्‍ड के मारे मेरी नसें जम गई हैं और पाले ने तो सर्दियों की शुरुआत में ही मेरी सारी कलियां नष्ट कर दी थीं। तूफान से मेरी सारी टहनियां टूट गई हैं। अब पूरे साल मुझ पर कोई फूल नहीं खिलेगा।’

दुखी बुलबुल दर्द से कराहती हुई चीखी, ‘मुझे सिर्फ एक लाल गुलाब चाहिए। क्यां किसी भी तरह से एक लाल गुलाब मिल सकता है?’ पौधे ने जवाब में कहा, ‘एक रास्ता है, लेकिन बहुत खतरनाक है। वो मैं तुम्हें नहीं बता सकता।’ बुलबुल बोली, ‘बताओ, मैं नहीं डरूंगी।’ गुलाब के पौधे ने कहा, ‘सुनो अगर तुम्हें लाल गुलाब चाहिए तो चांदनी रात में तुम्हें अपने संगीत और दिल के खून से मुझे सींचना होगा। रात भर तुम मेरे लिए गाओगी और तुम्हारे कलेजे में मेरा कांटा चुभा रहेगा। तुम्हारा लहू मेरी नसों में बहेगा और मेरा हो जाएगा।’ बुलबुल ने कहा, ‘एक लाल गुलाब के लिए जिंदगी का दांव बहुत बड़ा है।’... दुनिया की तमाम खूबसूरत चीजों की तरह जिंदगी सभी को प्यारी होती है, बावजूद इसके प्यार जिंदगी से बेहतर है, बड़ा है। बुलबुल उड़कर वापस अपने शाहबलूत के दरख्त वाले घोंसले के लिए उड़ चली।

वो नौजवान अभी भी घास पर लेटा हुआ था। बुलबुल बोली, ‘अब खुश हो जाओ, तुम्हें तुम्हांरा लाल गुलाब मिल जाएगा। मैं चांदनी रात में अपने गीत से उसे पैदा करूंगी और अपने कलेजे के लहू से उसे सींचूंगी। मैं यही कहने आई हूं कि तुम्ही सच्चे प्रेमी हो। प्रेम ही ईश्वर है।’

युवक ने देखा और सुना, लेकिन वह कुछ भी नहीं समझ सका। वह तो सिर्फ किताबों में पढ़ी बातें ही जानता था, बुलबुल की बात वह कैसे समझता। लेकिन शाहबलूत का वह बूढ़ा दरख्त़ समझ गया था, जिस पर बुलबुल का आशियाना था। उसने बुलबुल से कहा, ‘मेरी खातिर आखिरी बार गाओ मेरी प्यारी बुलबुल... तुम्हारे जाने के बाद मुझे बहुत अकेलापन महसूस होगा।’ और बूढ़े दरख्त की बातें सुन कर बुलबुल उसके लिए गाने लगी। जैसे ही उसने गाना बंद किया, वो नौजवान उठा और चल दिया। रास्ते में चलते हुए भी वह अपनी महबूबा के बारे में सोचता रहा। इसी सोच में वह अपने कमरे में गया और बिस्त‍र पर लेट गया। सोचते सोचते वह सपनों की मीठी नींद में चला गया।

आकाश में चांद दिखते ही बुलबुल उड़कर गुलाब के पौधे के पास पहुंच गई। बिना वक्त गंवाए उसने गुलाब की टहनी का लंबा सा कांटा अपने सीने में पैबस्त कर लिया और गाने लगी। सबसे पहले उसने युवा प्रेमियों के दिलों में पनपने वाले प्रेम का गीत गाया। पौधे के माथे पर एक खूबसूरत गुलाब खिल उठा। बुलबुल जैसे-जैसे गाती रही, गुलाब की पंखुडि़यां खुलती चली गईं। अभी गुलाब के फूल का रंग कोहरे की मानिंद था, रंगहीन सफेद सरीखा। उधर पौधा बुलबुल से बार-बार कह रहा था, ‘प्यारी बुलबुल, कांटे को अपने दिल में कस कर दबाओ, कहीं ऐसा ना हो कि फूल पूरा होने से पहले ही दिन निकल आए।’ बुलबुल ने पूरी ताकत से कांटे को कस लिया और गाना तेज कर दिया। अब वह दो आत्माओं में पनपने वाले अमर प्रेम के गीत गा रही थी।

फूल पर अब गुलाबी रंग छाने लगा था। हालांकि उसका अंदरूनी हिस्सा अभी भी सफेद ही था। अब तो सिर्फ बुलबुल के दिल का लहू ही उसे सुर्ख रंग दे सकता था। इसलिए पौधे ने फिर बुलबुल से जोर लगाने के लिए कहा। बुलबुल ने अपना पूरा दम लगा दिया और आखिरकार कांटा उसके दिल तक पहुंच गया। बुलबुल को भयानक दर्द हुआ और वह दर्द के मारे जोरों से गाने लगी। अब वह उस प्रेम के गीत गा रही थी जो मृत्यु पर जाकर खत्म होता है। बुलबुल की कोशिशें रंग लाईं और आखिरकार गुलाब पूरी तरह पूरब के आसमान जैसा सुर्ख लाल हो गया। बुलबुल की आवाज धीमी पड़ती जा रही थी। उसके पंख तेजी से फड़फड़ा रहे थे-आंखें बंद होती जा रही थीं। बुलबुल ने अब आखिरी तान छेड़ी। इसे सुनकर चांद बादलों में छिपना भूलकर एक जगह स्थिर हो गया। लाल गुलाब इसे सुनकर खुशी के मारे कांप उठा। उसने अपनी तमाम पंखुडियां खोल दीं। पूरे इलाके में एक चीख गूंज गई, जिसे सुनकर सपने देखते गडरिए जाग उठे।

पौधा मारे खुशी के चिल्लाया, ‘देखो, गुलाब पूरा हो गया, देखो।’ बुलबुल कुछ नहीं बोली। कांटा उसके कलेजे में गहरे धंसा हुआ था और वह घास पर मौत की गहरी नींद सो रही थी।

दोपहर में नौजवान ने खिड़की खोल कर देखा तो वह लगभग चीख ही पड़ा, ‘यह रहा मेरा लाल गुलाब, किस्मत का शानदार करिश्मा। मैंने जिंदगी में आज तक ऐसा खूबसूरत लाल गुलाब नहीं देखा।’ उसने झुक कर फूल तोड़ लिया।

हाथ में गुलाब लिए वह माशूका के घर की तरफ दौड़ चला। वहां दरवाजे पर बैठी महबूबा धागे की रील लपेट रही थी। वह चिल्लाया, ‘तुमने कहा था, अगर मैं लाल गुलाब ले आउं तो तुम मेरे साथ नाचोगी। यह दुनिया का सबसे खूबसूरत लाल गुलाब है। आज की रात तुम इसे छाती से लगाओगी। हमारे नाच के वक्ता गुलाब का यह फूल तुम्हें अहसास कराएगा कि मैं तुमसे कितना प्रेम करता हूं।’

लेकिन लड़की ने चंचला स्त्री की तरह मुंह बनाते हुए कहा, ‘हुंह.. मुझे लगता है यह मेरे कपड़ों के रंग से मेल नहीं खाता। यूं भी बड़े सरदार के भतीजे ने मेरे लिए असली माणिक और मोतियों के गहने भेजे हैं। और सब जानते हैं कि गहने और माणिक-मोती फूलों से ज्यादा कीमती होते हैं।’

नौजवान क्रोध में चीखा, ‘तुम बेवफा हो।’ कह कर उसने गुलाब का वह फूल गली में फेंक दिया, जहां वह एक नाली में जाकर गिरा। एक घोड़ागाड़ी आई और फूल को कुचलते हुए निकल गई।

लड़की ने कहा, ‘बेवफा?... हुंह... वैसे भी तुम हो क्या? एक स्टूडेंट ही ना? मैं क्यों वफा करूं? तुम्हारे जूतों में तो सरदार के भतीजे की तरह चांदी के बक्कल भी नहीं होंगे।’ कहकर वह उठी और घर के भीतर चली गई।

नौजवान अपने कमरे में लौटते हुए बुदबुदाया, ‘यह इश्क भी क्यां वाहियात चीज है? तर्कशास्त्र के मुकाबले में तो यह आधी भी उपयोगी चीज नहीं है, क्यों कि इससे कुछ भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। जो चीजें नहीं होने वाली, उन्हीं को तो बताता है यह और क्या? इश्क हमें इस यकीन के लिए मजबूर करता है कि यह सच नहीं है, अवास्तविक है, अव्यावहारिक है और मेरी उम्र में तो व्यावहारिकता ही सब कुछ है। अब मैं वापस दर्शनशास्त्र की तरफ लौटूंगा और तत्व मीमांसा पढूंगा।

वह कमरे पर लौटा और धूल से अटी हुई एक पुस्तक उठाई और पढ़ने लग गया।





Sunday 20 February, 2011

पहले-पहले प्‍यार की पावन स्‍मृति में

भोर की पहली किरण की तरह आता है जिंदगी में पहला प्रेम और पूरे वजूद को इस तरह जकड़ लेता है जैसे आकाश में परिंदों का एक अंतहीन काफिला हमें उड़ाता लिए चला जा रहा हो। कोई नहीं जानता कि यह कब, क्यों और कैसे होता है, लेकिन जिसके जीवन में पहला प्रेम आता है उसके लिए ही नहीं दुनिया के किसी भी कवि-साहित्यकार के लिए इसे शब्दों में बांधना और उसका वर्णन करना बेहद मुश्किल होता है। बावजूद इसके अनेक रचनाकारों ने अपने प्रथम प्रेम को कविता, कहानी और उपन्यासों में बहुत सुंदर ढंग से बयान किया है। पहले प्यार को लेकर दुनिया की तमाम भाषाओं में लिखा भी गया है और हजारों की तादाद में फिल्में भी बनी हैं और आज भी ये पहले जितनी ही लोकप्रिय हैं। लेकिन हेलन केलर की यह बात अपनी जगह आज भी कायम है कि पहले प्रेम जैसी दुनिया की सबसे खूबसूरत चीजों को देख-सुन कर नहीं, दिल की अतल गहराइयों से ही महसूस किया जा सकता है। आस्थावान लोग इसे खुदा की सबसे अनूठी ईजाद कहते हैं और इसीलिए दुनिया के महानतम सूफी कवियों ने खुदा को ही अपने महबूब के रूप में मानकर अपनी शायरी में उसके रूप-सौंदर्य और महत्व को सिरजा है। जैसे बुल्ले शाह ने कहा है ‘अरे लोगों तुम्हारा क्या्, मैं जानूं मेरा खुदा जाने।’ पहला प्यार उस जादू का नाम है, जिसे बहुत-से लोग पता नहीं क्यों जीवन में महसूस करने से वंचित रह जाते हैं। इस जादू की माया ऐसी है कि जब यह पैदा होता है तो दिल, दिमाग और समूची चेतना यह मानने को तैयार नहीं होते कि एक दिन इसका अंत भी आएगा। प्रथम प्रेम के बारे में महान उपन्यासकार ऑस्कर वाइल्‍ड ने एक अद्भुत और सटीक बात कही है कि पुरुष हमेशा किसी स्त्री का पहला प्यार बनने के सपने देखता है और स्त्रियां पहले प्रेम को अंतिम मानकर चलती हैं। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि स्त्रियों के लिए पहला प्रेम ही अंतिम होता है, इसमें उनको खुशी मिलती है वो अनिर्वचनीय होती है और पहले प्रेम के साथ ही प्रेम में उनकी खुशियां समाप्त हो जाती हैं। इसके बाद वाले सारे प्रेम स्त्रियों के लिए एक हद तक निरर्थक होते हैं।

जिंदगी में कुछ चीजें कभी लौटकर वापस नहीं आतीं, जैसे किशोरावस्था या जवानी में कदम रखते ही पहले प्रेम का अनुभव। उसकी स्मृति बार-बार पलट कर आती है और एक मीठे-से दर्द की लहर हमारे वजूद को हिलाकर रख देती है। नब्बे फीसदी से अधिक मामलों में पहला प्रेम नाकाम होता है और यह नाकामयाबी जिंदगी के मायने बदलकर रख देती है। तभी जाकर समझ में आता है कि क्यों फैज अहमद फैज ने लिखा था, ‘हैं और भी गम जमाने में मुहब्बत के सिवा।’ जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने इसीलिए पहले प्रेम के लिए कहा है कि ‘पहला प्यांर एक ऐसी मूर्खता है जिसमें जिज्ञासाओं का एक अनंत सिलसिला होता है और कोई भी सच्चीम स्वाभिमानी स्त्री इस चक्कर में नहीं पड़ती।’ जिंदगी की राह में आगे चलने पर वो सारी मूर्खताएं याद आती हैं, जिसमें एक नजर दीदार के लिए बेकरारी बेपनाह होती है, किसी ना किसी बहाने से प्रिय को खुश रखने के जतन पर जतन किए जाते हैं, भूख-प्यास, दिन रात किसी का खयाल नहीं रहता और जमाने भर को अपनी प्यारी-सी बेवकूफियों के लिए भुला दिया जाता है। कितना पछतावा होता है, जब उन अजीब हरकतों को जिंदगी के कठोर अनुभवों के बाद याद करते हुए खुद पर हंसी भी आती है और रोना भी।

असल में पहला प्यार एक खास उम्र में शारीरिक बदलावों के कारण विपरीत यौनाकर्षण से पैदा होता है। कहने में यह जितना आसान है, दरअसल है नहीं, क्योंकि महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन तक ने कहा है, ‘नहीं नहीं, यह तरीका नहीं चलेगा... पृथ्वी पर पहले प्यार जैसे जैवविज्ञानी पहलू को रसायन और भौतिकशास्त्र की शब्दांवली में तुम क्यों समझाने जा रहे हो।’ चलिए हम नहीं मानते कि इसे विज्ञान से सिद्ध किया जाए, लेकिन पहले प्रेम के कारण बहुत सी ऐसी चीजें जिंदगी में घटती हैं, जिनका इलाज आगे चलकर मनोविज्ञान को करना पड़ता है, क्योंकि पहले प्रेम की अतिशय स्मृति युवा दिलो-दिमाग को बहुत व्यथित करती है और वो इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं होता कि इसका अवसान होगा। इसीलिए सर्बियाई लेखक ब्रेनिस्लाव न्यूजिक कहते हैं कि पहला प्यार तभी खतरनाक होता है जब वो आखिरी भी हो जाए।

बहरहाल इस दुनिया में बहुत से ऐसे लोग भी हैं जिनके जीवन में पहला प्रेम विवाह के बाद ही पैदा होता है और भारतीय समाज में तो यह एक बहुत बड़ा सच है। हमारे यहां तो कम उम्र में शादी का रिवाज आज भी जारी है। इस रिवाज की बदौलत ही शायद हमारे यहां विवाह जैसी संस्था इतनी कामयाब है, क्योंकि जिस उम्र में यौनाकर्षण जागृत होता है, उसी समय मां-बाप शादियां तय कर देते हैं और इस वजह से संभवत: पहले प्रेम का स्वाभाविक आकर्षण भावी जीवन साथी के प्रति पनप जाता है और यही विवाह के बाद दांपत्य् को मजबूती देता है। पहले प्रेम और भावी पति-पत्नी के लिए हमारे लोक जीवन में बहुत से लोकगीत, कहावतें और खेल बने हुए हैं। मुझे याद आता है कि बचपन में जब सावन के झूले लगते थे तो भाभियां अपनी नणदों से उनके भावी पति का नाम लेने के लिए खूब चुहल किया करती थीं और जब तक नाम नहीं बता दिया जाता था, तब तक झोटे देते हुए संटियां मारी जाती थी। नणदें भी भाभियों से अपने भैय्या का नाम पूछती थीं और इस तरह खूब मजे लिए जाते थे। अब वो पुराने रीति रिवाज खत्म होने के बाद परिदृश्य बदल गया है और प्राय: प्रथम प्रेम अब स्कूल और कॉलेज या घर, परिवार और रिश्तेदारियों में पनपने लगा है। बहरहाल हमारे लोक मानस में पहले प्रेम की अनेकों लोक कथाएं प्रचलित हैं, जिनमें ढोला-मरवण, जेठवा-ऊजळी, मूमल-महेंद्र, हीर-रांझा, सोहणी-महिवाल, ससी-पुन्‍नू, जसमा ओड़न आदि प्रमुख हैं।

पहले प्रेम की शुरुआत आजकल टेलीविजन, सिनेमा, क्रिकेट आदि लोकप्रिय माध्यमों के सितारों के जरिये होती है। एक जमाना था, जब हिंदी सिनेमा के नायक-नायिका ही हिंदी क्षेत्र में पहले प्रेम के पात्र हुआ करते थे। लड़कियां राजेश खन्ना के पोस्टरों से गंधर्व विवाह कर लिया करती थीं और नौजवान हेमा मालिनी, रेखा और मधुबाला आदि की तस्वी‍रें तकिए के नीचे दबाकर उनके सपनों में जीते थे। आजकल ज्यादातर किशोर और युवा अपना पहला प्रेम इन सेलिब्रिटी सितारों से करते हैं, लेकिन वास्तखविक पहला प्रेम दूसरी जगहों पर संभव होता है। पहला प्रेम प्राय: चेहरे की खूबसूरती, बातचीत, रहन-सहन के स्तर और अतिरिक्त प्रतिभा या मेधा के कारण पैदा होने वाले आकर्षण से पनपता है। वस्तुत: पहला प्रेम किसी भी इंसान के जीवन की पहली सबसे बड़ी परिघटना है, क्योंकि यह व्यक्ति को एक ऐसा अलौकिक और अवर्णनीय अहसास देकर जाता है, जिससे उसके बचपन और कैशोर्य का लगभग समापन होता है और अजीब उमंग व उत्साह से जीवन भरा-भरा लगने लगता है। आंखें बोलने लगती हैं और देह का अंग-अंग कुछ कहने लगता है, प्रकृति के सारे रंग एक नया अर्थ लेकर सामने आते हैं। मन काव्यमय हो जाता है और कुछ ना कुछ गुनगुनाने लगता है। चांद, सितारे, पेड़-पौधे, परिंदे, सुबह-शाम, दिन-रात सब कुछ इशारे करते नजर आते हैं और इंसान हरेक में अपने प्रिय को खोजने लगता है। जैसा कि कवयित्री एलिजाबेथ कहती हैं, ‘जब आप किसी से प्रेम करने लगते हैं तो आपकी तमाम इच्छाएं और हसरतें उसके लिए बाहर आने लगती हैं, आप सारी दुआओं में अपने प्रिय को याद करते हैं।’ बाकी दुनिया की नजरों में भले ही आपका प्रिय प्रेमपात्र अत्यंत साधारण और तुच्छ क्यों ना हो, आपके लिए संसार में उससे सुंदर कोई नहीं होता, क्यों कि आपका प्रेम ही उसे सौंदर्य देता है। इसीलिए किसी कवि ने कहा है कि आप उस स्त्री से इसलिए प्रेम नहीं करते हैं कि वह बेहद सुंदर है, बल्कि वह इसलिए खूबसूरत है कि आप उससे प्रेम करते हैं।

पहला प्रेम एक प्रकार से व्यक्ति को पूरी तरह बदल देता है। कुछ बदलाव सकारात्मक तो कुछ नकारात्मक भी होते हैं। जीवन में पहली बार परिवार से इतर किसी के प्रति आकर्षण व्यंक्ति को समाज के प्रति प्रेमिल बनाता है और प्रेम के रूप में एक ऐसा उपहार मिलता है, जिससे उसके भाव जगत में संवेदनाओं को विस्फोट होता है। कायनात की बहुत-सी चीजों को लेकर भावनात्मक रिश्ता विकसित होता है, जो आगे चलकर कई किस्म की कलात्मंक अभिरूचियों में तब्दील होता है और व्यक्ति को संवेदनशील कलाकार जैसे संस्कार मिलते हैं। पहले प्रेम की सबसे खराब बात यह होती है कि यह अत्यंत क्षणिक आवेग की तरह आता है और इसमें मूर्खता और मासूमियत का इस कदर घालमेल होता है कि कम उम्र में यह चिड़चिड़ा बना देता है और एक अजीब-सी दीवानगी पैदा कर देता है, जो परिवार के लिए चिंताजनक हो जाता है। इसीलिए नीत्शे की बात सही लगती है कि प्रेम में हमेशा कुछ हद तक पागलपन होता है, लेकिन दूसरी तरफ देखें तो हर पागलपन के भी कुछ कारण होते हैं। इस पागलपन ने हमें उच्च कोटि के कलाकार और रचनाकार दिए हैं। बहुत-से लेखकों का कहना है कि उन्होंने आरंभ में अपने प्रिय प्रेमपात्र को प्रभावित करने के लिए ही लिखना शुरु किया था।

पहले प्यार और पहले आकर्षण के बारे में चाहे कुछ भी कहा जाए, यह मनुष्य जीवन का सबसे अनमोल उपहार है, जो जिसको नसीब होता है, वो भी रोता है और जिसे नहीं मिलता वह भी। जिंदगी के किसी ना किसी मोड़ पर प्रथम प्रेम की स्नेहिल और मासूम स्मृति हमेशा एक नया अहसास देकर जाती है और यूं लगता है जैसे खुश्बुओं का एक जबर्दस्त‍ झोंका दिलो-दिमाग को तरोताजा कर गया हो। अपनी ही एक कविता याद आती है:

पहला चुंबन और पहला आलिंगन
कभी नहीं भूलता कोई
भूलने के लिए और भी बहुत-सी चीजें हैं
मसलन बहुत सारे सुख
जो हमने साथ-साथ भोगे
उन दु:खों को नहीं भूलना प्रिय
जो हमने साथ-साथ काटे।

यह आलेख डेली न्‍यूज़, जयपुर के रविवारीय परिशिष्‍ट 'हम लोग' की आवरण कथा के रूप में 13 फरवरी, 2011 को प्रकाशित हुआ।









Sunday 6 February, 2011

बसंत और उल्‍काएं

तीन बाई दो की उस पथरीली बेंच पर

तुमने बैठते ही पूछा था कि

बसन्त से पहले झड़े हुए पत्तों का

उल्काओं से क्या रिश्ता है

पसोपेश में पड़ गया था मैं यह सोचकर कि

उल्काएँ कौनसे बसंत के पहले गिरती हैं कि

पृथ्वी के अलावा सृष्टि में और कहाँ आता है बसन्त

चंद्रमा से पूछा मैंने तो उसने कहा

‘मैं तो ख़ुद रोज़-रोज़ झड़ता हूँ

मेरे यहाँ हर दूसरे पखवाड़े बसन्त आता है

लेकिन उल्काओं के बारे में नहीं जानता मैं’

पृथ्वी ने भी ऐसा ही जवाब दिया

‘मैं तो ख़ुद एक टूटे हुए तारे की कड़ी हूँ

उल्काओं के बारे में तो जानती हूँ मैं

लेकिन बसंत से उनका रिश्ता मुझे पता नहीं’

एक गिरती हुई उल्का ने ही

तुम्हारे सवाल का जवाब दिया

‘ब्रह्माण्ड एक वृक्ष है और ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र उसकी शाखाएँ हैं

हम जैसे छोटे सितारे उसके पत्ते हैं

पृथ्वी पर जब बसन्त आता है तो

हम देखने चले आते हैं

झड़े हुए पत्ते हमारे पिछले बरस के दोस्त हैं’



आओ हम दोनों मिलकर

इस बसंत में आयी हुई उल्काओं का स्वागत करें

Tuesday 1 February, 2011

गुलाबी नगरी में लेखकों का मेला

जयपुर में साहित्य का महाकुंभ इस बार छठे वर्ष में प्रवेश कर भारतीय ही नहीं वैश्विक क्षितिज पर एक नई पहचान छोड़ गया, जिसमें साल दर साल पर्यटन नगरी जयपुर की पहचान साहित्य और संस्कृति के एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में बनती दिखाई देती है। 21 जनवरी, 2011 की सुबह पारंपरिक वाद्य यंत्रों के तुमुल नाद के साथ आरंभ हुए लिटरेचर फेस्टिवल का आगाज मुख्‍यमंत्री अशोक गहलोत, विद्वान राजनेता डा. कर्ण सिंह और संस्कृत के अमेरिकी विद्वान पद्मश्री डा. शेल्डेन पोलक ने किया। इसके बाद नोबेल पुरस्कार से सम्मानित तुर्की के विश्वप्रसिद्ध उपन्यासकार ओरहान पामुक से खुले सत्र में संवाद हुआ। युवा लेखक चंद्रहास चौधुरी के साथ संवाद में ओरहान पामुक ने कहा कि पूरी दुनिया में लोगों के दिल एक जैसे हैं, मन एक जैसे हैं, बस सांस्कृतिक भिन्नता और रहन-सहन की परिस्थितियां अलग हैं। इसलिए दुनिया की किसी भी भाषा में लिखा जाने वाला साहित्य लोगों के मन को छूता है क्योंकि उन्हें अपने आसपास जैसी एक दूसरी दुनिया देखने को मिलती है। पामुक ने कहा कि भारत की पारंपरिक चिंतन प्रणाली में बहुत कुछ ऐसा है जो लोगों को अपने समय की सचाइयों को नए ढंग से देखकर लिखने के लिए प्रेरित कर सकता है। पामुक ने ‘आर्ट आफ नावल’ पर बात करते हुए कहा कि लेखक की अपनी राजनैतिक समझ होती है जो उसकी रचना प्रक्रिया में पक कर एक नए रूप में सामने आती है।

पांच दिन चले साहित्य के इस महाकुंभ में इस बार भारत सहित दुनिया के बीस से अधिक देशों के 220 से अधिक लेखकों ने भागीदारी की। दो बार के बुकर विजेता जे.एम. कोएट्जी के साथ अमेरिका से रिचर्ड फोर्ड और जेय मैकिरनरी जैसे अंग्रेजी के विख्यात लेखकों के साथ विक्रम सेठ, इरविन वेल्श और मोहसिन हामिद भी इस महामेले में शामिल हुए। इस सूची में वो लेखक, संपादक, लिटरेरी एजेंट और प्रकाशक शामिल नहीं हैं जो इस विशाल साहित्यिक मेले का लुत्फ उठाने दुनिया के कई कोनों से यहां पहुंचे। पिछले दो-तीन वर्षों से इस साहित्योत्सव में दक्षिण एशिया पर विशेष ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की गई है, जिसकी वजह से पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका, नेपाल और भूटान जैसे पड़ौसी मुल्कों के लेखक भी इसमें शिरकत कर रहे हैं। इन प्रयासों से इस उपमहाद्वीप के देशों में सांस्कृतिक संबंध बेहतर बनाने में खासी सफलता मिल सकती है। पहली बार अफगानिस्तान के मशहूर लेखक अतीक रहीमी की इस उत्सव में भागीदारी हुई तो नेपाल से नाराण वागले और मंजुश्री थापा की आमद हुई।

हिंदी और भारतीय भाषाओं के लेखकों की इस उत्सव में भागीदारी साल दर साल बढती जा रही है। इस बार हिंदी भाषा और साहित्य को लेकर कुछ नए विषयों पर कवि, लेखक और पत्रकारों के बीच रोचक और सार्थक संवाद हुए। जन्मशताब्दी वर्ष में अज्ञेय, नागार्जुन और शमशेर बहादुर सिंह पर ओम थानवी, महेंद्र सुधांश और सुधीश पचौरी के बीच अविनाश के साथ संवाद हुआ। ‘‘ऐसी हिंदी कैसी हिंदी’’ पर मृणाल पांडे, रवीश कुमार, सुधीश पचौरी और प्रसून जोशी के बीच सत्‍यानंद निरूपम के संयोजन में रोमांचक बातचीत हुई। इसी तरह ‘नई भाषा नए तेवर’’ में गिरिराज किराडू, मोहल्ला लाइव के अविनाश और मनीषा पांडेय के बीच रवीश कुमार के साथ उत्तेजक चर्चा हुई। उर्दू जुबान को लेकर गीतकार जावेद अख्तर ने बहुत तल्खी के साथ कहा कि जुबानों का ताल्लुक मजहब से नहीं होता, इलाकों से होता है, लेकिन यह तकलीफ देने वाली बात है कि जहां उर्दू पढ़ने-लिखने वाले लोगों की कमी हो रही है, वहीं उर्दू सुनने वालों की तादाद में इजाफा हो रहा है। तेजी से लोकप्रिय हो रहे भोजपुरी सिनेमा पर भी एक सत्र में अविजीत घोष और कुमार शांता का अमिताव कुमार के साथ संवाद हुआ।

मराठी थिएटर, कश्मीर, रामायण और बुल्ले शाह पर भी कई सत्रों में खुलकर चर्चा हुई। बुल्ले शाह को भारत-पाक के बीच सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत आधार बताते हुए पत्रकार गायक मदनगोपाल ने कई नई जानकारियां देते हुए उनके कलाम को बेहद खूबसूरती से पेश किया। राजस्थान की राजधानी में आयोजित इस उत्सव में प्रदेश के हिंदी व राजस्थानी लेखकों की भी शिरकत रही। लेखकों में आपसी संवाद से पता चला कि इस बार राजस्थान से लेखकों का चयन अगर और बेहतर होता तो राजस्थान की समकालीन रचनाशीलता का एक बेहतर स्वरूप सामने लाया जा सकता था। स्थानीय लेखकों में इस बात को लेकर भी किंचित क्षोभ था कि इस बार आयोजन में उनकी भागीदारी के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई थी।

दक्षिण एशियाई साहित्य के लिए शुरु हुआ डीएससी पुरस्कार पहली बार अंग्रेजी के युवा उपन्यासकार एच.एम. नकवी को हार्परकॉलिंस से प्रकाशित उपनके उपन्यास ‘होम बॉय’ के लिए प्रदान किया गया। दक्षिण एशिया के इस सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार में नकवी को पचास हजार अमेरिकी डॉलर और प्रतीक चिन्ह प्रदान किया गया। इस पुरस्कार के निर्णय से बहुत से लोगों को आश्‍चर्य भी हुआ, क्योंकि सब यही मान कर चल रहे थे कि यह पुरस्कार अमित चौधुरी को ‘द इम्मोर्टल्स’ पर दिया जाएगा। पुरस्कार के लिए चयनित अंतिम पांच लेखकों में अमित सबकी पहली पसंद थे।

पिछले अनुभवों से सबक लेते हुए आयोजकों ने इस बार कार्यक्रम स्थल डिग्गी पैलेस का काफी विस्तार किया लेकिन आमजन और विद्यार्थियों की जबर्दस्त भागीदारी ने सिद्ध कर दिया कि इस साहित्योत्सव को लेकर उनमें बेहद उत्साह है और इसीलिए बावजूद तमाम इंतजामों के हर जगह लोगों की भीड़ छाई रही और लोगों को बैठने के लिए ही नहीं चलने के लिए भी जगह कम पड़ गई। अगली बार संभवतः आयोजकों को नई जगह तलाश करनी होगी, क्योंकि इसमें सिनेमा की मशहूर हस्तियों की उपस्थिति के वक्त तो बेकाबू भीड़ जमा हो जाती है, जो निश्चित रूप से आने वाले सालों में बढती जाएगी। साहित्य के इस विशाल मेले में प्रायोजकों की संख्या भी बढती जा रही है। साहित्य के नाम पर इस बढते हुए बाजारवाद को लेकर विगत तीन साल से जयपुर आ रहे एक अमेरिकी पत्रकार की टिप्पणी थी कि हर साल यह साहित्योत्सव व्यावसायिक अधिक होते जा रहा है जो बेहद चिंताजनक है।

यह रपट संपादित रूप में हिंदी आउटलुक के फरवरी 2011 अंक में प्रकाशित हुई है।