Sunday 31 October, 2010

दिवालिया देश में दीवाली

इन दिनों जब आम गरीब आदमी दीपावली और त्यौहारी मौसम में परिजनों के पास जाने की सेाच रहा है, प्रसिद्ध कहानीकार अरुण प्रकाष की कहानी ‘भैया एक्सप्रेस’ याद आती है। इस कहानी में पंजाब में मजदूरी करने आए बिहारी मजदूरों की रेल यात्रा के बहाने उनकी व्यथा कथा का भयावह चित्रण है कि कैसे गरीब आदमी जब तीज-त्यौंहार पर अपने गांव-घर वापस जाता है तो उनकी रेल को अभिजात समाज नाम बदल कर ‘भैया एक्सप्रेस’ कर देता है। यह भारतीय समाज की 21वीं सदी के पहले दषक के अवसान वाली दीपावली है, जब सरकारी आंकड़ों और घोषणाओं में स्वर्णिम भारत की बहुरंगी तस्वीर दिखाई जा रही है, लेकिन रेल-बसों में ठसाठस भरकर अपने मूल आषियाने की ओर जाने वाली आम लोगों की तादाद बता रही है कि यह एक ही देष में रहने वाले लोगों के दो देषों का चित्र है, जिसमें एक चमकदार भारत है, जिसके लिए हर तरफ ऑफरों की भरमार है, सजे-संवर-दमकतेे शॉपिंग मॉल हैं, नियॉन रोषनियों का जगमगाता समंदर है, बोनस की घोषणाएं हैं, दीवाली के तोहफे हैं, पटाखों की कानफोड़ू आवाजें हैं और नकली मावा के मुकाबले चॉकलेट और सूखे मेवों का बाजारी मुकाबला है। दूसरा भारत अपने मिट्टी के कोरे दीयों में खील-बताषों और नई फसल के साथ गोबर-गेरू से घर-आंगन लीपता राम-राम करता हुआ भारत है, जहां कई साल-बरसों बाद अपनों से गले मिलने का संतोष है, जिसे हफ्ते-दस दिन बाद फिर किसी ‘भैया एक्सप्रेस’ में चमकते भारत के संपन्न लोगों की हिकारत के बीच अपने खून-पसीने को बेचने जाना है।

दस फीसदी विकास दर की चकाचौंध रोषनी, सेंसेक्स के थर्मामीटर और प्रत्यक्ष विदेषी निवेष के ग्लूकोज से चलने वाले एक देष के लिए उस देष की दिवालिया दीवाली का कोई अर्थ नहीं है, जो नींव की ईंट बन कर चमक-दमक पैदा करने के लिए अपना श्रम और अपने संसाधन निछावर कर रहा है। गांव के गांव खाली हो रहे हैं, पारंपरिक रोजगार के अवसर समाप्त हो रहे हैं, लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, मानवीय श्रम भारतीय इतिहास में आज से पहले कभी इतना सस्ता नहीं था सो मजबूर लोग मामूली मजदूरी पर अपना पसीना बेचने को मजबूर हैं या चौराहों पर बीवी-बच्चों के साथ भीख मांगने के सिवा उनके पास आपराधिक तरीकों से काम चलाना ही अंतिम विकल्प बचा है। कहने को गांवों में महानरेगा है, जिसमें सौ दिन के रोजगार की गारंटी है, लेकिन पेट को तो 365 दिन भरना पड़ता है हुजूर और इस पर भी सितम यह कि नरेगा से लक्ष्मी को बंधक बनाकर घर में कैद करने वाले गांव के बड़े लोगों, पंच-सरपंच और सरकारी अफसरों का हिस्सा निकाल लो तो साल में दो हफ्ते का ही राषन जुटता है सौ दिन की नरेगा की मजदूरी से। लक्ष्मी जी को बंधक बनाकर चमकीले भारत के लोग ले गए हमारे लिए तो उनका वाहन ही छोड़ गए हैं जो अजीब निगाह से टुकुर-टुकुर देखता है हमारी तरफ, क्या करें उलूक महाषय का, हमारी अंधेरी रातों में तो उसकी एक जोड़ी टिमटिमाती आंखों की ही रोषनी है बस।

स्वर्ण चतुर्भुज जैसी मेगा सड़क परियोजनाएं देष के भूगोल का नक्षा बदल रही हैं और डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर सरीखी रेल पटरियां इक्कीसवीं सदी के वाणिज्यिक भारत का नया मानचित्र बनाने को बेताब हैं। लेकिन इस रोषन तस्वीर का दूसरा अंधेरा पहलू यह है कि इन सड़क और रेल मार्गों के किनारे बसे गांवों के ग्रामीणों की जिंदगियां आने वाले बरसों में हमेषा-हमेषा के लिए काली दीवाली लेकर आने वाली है। अगर केंद्र और राज्य सरकारों की भावी योजनाओं पर भरोसा किया जाए तो इन रेल-सड़क मार्गों के किनारे बसे गांवों की करोड़ों बीघा जमीन सरकारें अवाप्त कर पूंजीपति घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देने जा रही हैं और इस जमीन पर कंपनियां खेती करेंगी, कृषि उत्पादों की प्रोसेसिंग करेंगी और रेल-सड़क मार्गों से तैयार माल सीधे देष-विदेष में बेचने के लिए भेज देंगी। फिर भविष्य में इन लाखों गांवों से मिट्टी के घर, गोबर के गोवर्धन और तमाम तीज त्यौहारों की रौनकें खत्म हो जाएंगी, बचेगा तो कंपनियों की चिमनियां का काला धुंआ और विषालकाय कृषि यंत्रों का अनंत शोरगुल, जिसमें ग्रामीण भारत की कृषि संस्कृति के सारे रंग खो जाएंगे। फिर कोई ‘भैया एक्सप्रेस’ इन रास्तों से गजरेगी तो बड़ेऋबूढ़े अपने बच्चों से कहेंगे कि यहीं कहीं हमारा गांव था, घर था, छोटा-सा खेत था, जहां हम होली-दीवाली और छठ मनाने आते थे।

शहरों की चकाचौंध भरी रोषन दीपावली के जगमग उजालों में भविष्य के अंधेरों की भयावह कल्पना के बीच हमें दिखाई देते हैं बड़े शहरों में बसे गरीबों के अंधियारे आषियाने, जहां ना बिजली है ना पानी, है तो बस दमघोंटू मलिन बस्तियों का मैला-कुचैला मेरा भारत महान। इस भारत के बारे में आम शहरी और नगर नियोजकों और नियंताओं का मानना है कि इक्कीसवीं सदी के चमकीले भारत के माथे पर ये बदनुमा दाग हैं। जबकि तथ्य यह है कि सिर्फ दिल्ली में सड़कों और सार्वजनिक स्थानों पर खड़ी होने वाली कारों ने दिल्ली की दस प्रतिषत जगह घेर रखी है और वहां की मलिन बस्तियों ने महज एक फीसद जगह।
(डेली न्यूज़, जयपुर में रविवार ३१ अक्टूबर, २०१० को प्रकाशित. )

Wednesday 13 October, 2010

जाना एक कॉमरेड कवि का

पिछले कुछ सालों से एक-एक कर हमारे अत्यंत प्रिय और महत्वपूर्ण संघर्षशील रचनाकार साथी विदा हो रहे हैं और यह बेहद दुखद है। इस अक्टूबर महीने की शुरुआत ही राजस्थान के लोकप्रिय, क्रांतिकारी और अजातशत्रु कॉमरेड कवि शिवराम के आकस्मिक निधन से हुई। उनका यूं अचानक चले जाना हमारे समय का ऐसा हादसा है, जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकेगी। शिवराम हाड़ौती अंचल की सबसे बुलंद आवाज थे। एक ऐसा इलाका, जो दक्षिणपंथियों का गढ़ है, जहां उद्योगपतियों का वर्चस्व है, वहां पिछले करीब चार दशक से शिवराम अकेले सिंह की तरह तमाम मोर्चों पर दहाड़ रहे थे और लोगों को एकजुट कर रहे थे। हाड़ोती के मजदूर, किसान, युवा, दलित, अल्पसंख्यक, वंचित, साहित्यकार, कलाकार और आम आदमी के  निर्द्वंद्व नेता शिवराम 01 अक्टूबर, 2010 को मौन हो गए। 
उनके निधन की सूचना से पूरे देश में शोक की लहर फैल गई। किसी के लिए यह कल्पना करना मुश्किल था कि शिवराम यूं अचानक भी जा सकते हैं। अभी तो उनके वास्तविक जननेता का काल शुरु हुआ था, जिसमें वे गांव-गांव, शहर-शहर घूम कर अपने ओजस्वी भाषणों, गहरे व्यंग्य और मर्मस्पर्शी कविताओं तथा चेतना से ओतप्रोत नाटकों के जरिए जन-जागरण का निरंतर काम कर रहे थे। तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद वे सभी समान विचारधाराओं के लोगों को एक मंच पर लाने में जुटे हुए थे। राजस्थान में संयुक्त सांस्कृतिक मोर्चा के वे संयोजक थे और दिन-रात कई मोर्चों पर सक्रिय रहते थे। पता नहीं यह अति सक्रियता ही तो कहीं उन्हें हमसे दूर नहीं ले गई। 
23 दिसंबर, 1949 को करौली के गांव गढ़ी बांदुवा में जन्मे शिवराम का परिवार जातिगत पेशे से स्वर्णकार था। जिस परिवार में बात ही हमेशा सोना-चांदी की होती रही हो, वहां से संघर्षों की आंच में तप कर जो व्यक्तित्व निकला उसने मेहनत और पसीने की बूंदों को शब्द और संघर्ष की माला में पिरोकर जनता के सौंदर्य के गहने बनाने का बीड़ा उठाया। अजमेर से आई.टी.आई. की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे दूरसंचार विभाग में तकनीशियन के रूप में सेवाएं देने लगे। विवेकानंद से प्रभावित होकर वे मार्क्सवाद की तरफ आए और फिर अपने पूरे परिवार और समाज को ही इस धारा में शामिल करते चले गए। ऐसे मार्क्सवादी बहुत कम होते हैं, जो अपने परिवार को भी विचारधारा से जोड़कर जनता के संघर्षों के लिए दीक्षित करते हैं। पर शिवराम ऐसे ही थे। उनके साथ जो भी जुड़ता वो उनके सहज, आत्मीय, निर्मल और प्रेमिल व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके विचारों का अनुषंगी हो जाता। हाड़ौती अंचल में शिवराम ने हजारों की संख्या मे लोगों को मार्क्सवाद की बुनियादी तालीम दी। सैंकड़ों कवि-लेखकों को प्रगतिशील-जनवादी सरोकारों से लैस होकर लिखने का पाठ पढ़ाया। 
मुझे याद नहीं कि उनसे मेरी पहली मुलाकात कब हुई थी, लेकिन उनके विचारों से, उनकी आयोजन क्षमता से, उनके मजदूर नेता वाले रूप से, उनके सृजनशील मन से, उनकी आत्मीयता से, उनकी सहज-सरल और मृदुल मुस्कान से मैं हमेशा प्रभावित हुआ। हमारे बीच कुछ बुनियादी वैचारिक सवालों पर मतभेद रहे, उन पर हम खुलकर चर्चा भी करते रहे, लेकिन यह उनके व्यक्तित्व का ही कमाल था कि मतभेद को उन्होंने कभी मनभेद नहीं बनने दिया। एक बार अजमेर में संयुक्त सांस्कृतिक मोर्चा की बैठक के बाद हम दोनों ने जयपुर तक की यात्रा में अपने संघर्षों के दौर के अनुभव आपस में बांटे। मुझे यह जानकर सुखद आश्‍चर्य हुआ कि स्वर्णकार परिवार में जन्म के बावजूद शिवराम जी ने बेहद संघर्ष किया और इसकी वजह यह थी कि वे बहुत स्वाभिमानी थे और पारिवारिक पेशे से अलग हटकर कुछ मन का काम करना चाहते थे, इसीलिए आई.टी.आई. में चले गए। उनकी औपचारिक शिक्षा बहुत ज्यादा नहीं थी, लेकिन स्वाध्याय से उन्होंने तमाम किस्म का ज्ञान अर्जित किया। हिंदी में मार्क्सवाद की छोटी-छोटी पुस्तिकाओं से उन्होंने अपना वैचारिक आधार तैयार किया, जो कुछ पढ़ते उसे साथियों के साथ सरल दैनंदिन उदाहरणों से समझाते और उनकी चेतना को नया रूप देते। लोगों के बीच अपनी बात पहुंचाने के लिए उन्होंने नाटक को खास तौर पर नुक्कड़ नाटक को अपनाया। हिंदी में जब मंच के लिए ही अच्छे नाटक नहीं हैं तो नुक्कड़ नाटकों का तो वैसे ही अकाल है। इस कमी को पूरा करने के लिए शिवराम ने खुद नाटक लिखना शुरु किया और कलाकारों की कमी के चलते खुद अभिनेता और निर्देशक भी हो गए। जनता की समस्याओं पर नुक्कड़ नाटक लिखने की प्रक्रिया में शिवराम सिद्धहस्त हो गए थे। उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध नाटक है ‘जनता पागल हो गई है’, हिंदी में यह अब तक का सर्वाधिक मंचित नाटक है। नाटकों की उनकी पांच पुस्तकें प्रकाशित हैं। मेरे खयाल से हिंदी में शिवराम जनचेतना वाले नाटक लिखने वाले सबसे बड़े नाटककार हैं, शायद ही किसी अन्य नाटककार ने उनसे अधिक जन-नाटक लिखे हों। 
मूलतः कविर्मना शिवराम की कविताओं के तीन संग्रह हैं, ‘माटी मुळकेगी एक दिन’, ‘कुछ तो हाथ गहो’ और खुद साधो पतवार।’ कविताओं में वे आम आदमी से सीधा संवाद करते हैं और जगाने की बात करते हैं। उनकी कविताएं इसी जीवन और धरती पर रचे-बसे लोगों के सुख-दुख और निराशा से आशा की ओर ले जाने वाली कविताएं हैं। शिवराम मार्क्सवाद और अनवरत संघर्ष को ही जीवन का ध्येय मानने वाले सृजनशील, विचारक, जननायक थे। वे मानते थे कि जनसंघर्षों की सफलता मार्क्सवाद में ही संभव है, इसलिए अपनी एक कविता में वे कहते हैं, ‘उत्तर इधर है राहगीर, उत्तर इधर है।’ उनकी संघर्षषील और सृजनधर्मी स्मृति को नमन। 

यह स्‍मरणांजलि डेली न्‍यूज़, जयपुर के रविवारीय परिशिष्‍ट 'हम लोग' में 10 अक्‍टूबर, 2010 को प्रकाशित हुई।

Sunday 10 October, 2010

राम सजीवन की प्रेमकथा

यह जवाहर कला केंद्र की फ्राइडे थियेटर की हमेशा जैसी चहल-पहल भरी शाम थी। मेरे जैसे कई दर्शकों के मन में जिज्ञासा थी कि हिंदी के अद्भुत कथाकार उदय प्रकाश की चर्चित कहानी ‘राम सजीवन की प्रेमकथा’ को योग्य युवा रंगकर्मी अभिषेक गोस्वामी कैसे प्रस्तुत करेंगे? रंगायन सभागार में जब रोशनियां गुल हुईं तो अंधेरे में अभिषेक की आवाज में राम सजीवन के गांव से देश की राजधानी के सबसे महत्वपूर्ण विश्‍वविद्यालय तक पहुंचने की संक्षिप्त, पर रोचक कथा और राम सजीवन की पूरी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि जैसे-जैसे उजागर होती गई, मंच पर छाया अंधेरा भी छंटने लगा। कुर्ते-पायजामें में राम सजीवन राजधानी के विश्‍वविद्यालय में दाखिल हुए तो उनकी मित्र मंडली ने उनके आंरभिक अनुभवों और उनके बिहारी लहजे को लेकर उनकी मुश्किलों को एक एक कर बयान करना शुरु किया तो राम सजीवन की कथा रोचक ढंग से आगे बढने लगी। गंवई पृष्ठभूमि के राम सजीवन के लिए चीजों को देखने का गंवई अंदाज दर्शकों को गुदगुदाने लगा। किसी ने कितनी कीमत के जूते या कपड़े पहन रखे हैं इसे राम सजीवन क्विंटल धान या गेहूं में बयान करते तो दर्शकों के ठहाके लगते। इसी प्रक्रिया में राम सजीवन विश्‍वविद्यालय में सहपाठी छात्रों के कौतूहल का विषय बनते गए और विषमता और समाजवादी समाज की बहसों में वे वामपंथ के मार्ग पर चलते चले गए।

क्हानी में रोचक मोड़ तब आता है जब विश्‍वविद्यालय में लड़कियों को भी प्रवेश की अनुमति मिल जाती है और राम सजीवन होस्टल के जिस कमरे में रहते हैं उसकी बालकनी के ठीक सामने एक छात्रा अनिता चांदीवाला आ जाती है। बड़े बाप की बेटी अनिता लंदन से पढ़कर आई है। राम सजीवन उसे बालकनी में निसंकोच खड़ी देखते हैं तो उसके हाव-भाव से उन्हें लगने लगता है कि उन दोनों में प्रेम हो गया है और यह प्रेम मौन संवादों में मुखरित हो रहा है। वे अपने मित्रों से इस प्रसंग की चर्चा करते हैं और उपहास का पात्र बनते चले जाते हैं। इस इकतरफा प्रेमकथा का बुखार जब चरम पर पहुंचता है तो राम सजीवन देशी-विदेशी प्रेम कवितएं पत्रों में लिख कर अनिता को भेजने लगते हैं, जिसकी शिकायत वार्डन से की जाती है। अंततः मित्र लोग जबर्दस्ती राम सजीवन को गांव भेज देते हैं। एक साल बाद गांव से लौटने पर भी राम सजीवन सामान्य नहीं होते। लेकिन इस एक बरस में बहुत कुछ बदल जाता है, अनिता वापस लंदन चली जाती है और विश्‍वविद्यालय में माहौल बदल जाता है, उनका कमरा बदल दिया जाता है।

इकतरफा प्रेम की इस असाधारण प्रेमकथा को अभिषेक ने जिस रंगशैली में मंच पर प्रस्तुत किया वह बेहद प्रभावी और प्रयोगवादी है। आधुनिक कहानी को वायस ओवर, मादक संगीत और कई पात्रों के माध्यम से कहने में जो कमाल अभिषेक ने किया है वह काबिले तारीफ है। कलाकारों ने जिस तन्मयता से अभिनय किया, वह कहानी का प्रवाह टूटने नहीं देता और एक किरदार की कथा को कई किरदारों से कहलाने का नवाचार रंगमंच की असीम संभावनाओं भरी दुनिया को व्यक्त करत है। प्रकाश योजना और कई किस्म के रंग उपकरणों का जिस कुशलता के साथ अभिषेक इस्तेमाल करते हैं, वह कहानी को कई रूपों में व्यंजित और व्याख्यायित करता है। एक भोली-भाली मासूम प्रेमकथा राजधानी के आर्थिक विषमता भरे माहौल में कैसे उपहास का पात्र बन जाती है, भावनाएं जहां हर तरह से रौंद दी जाती है और व्यवस्था किसी मासूम प्रेमकथा को परवान नहीं चढ़ने देती। निश्‍चय ही एक विशिष्ट किस्म का रंग अनुभव है अभिषेक गोस्वामी की ‘राम सजीवन की प्रेमकथा।’

Monday 4 October, 2010

तुम्हारे शहर में

जब भी इस शहर में दाखिल होता हूँ


तुम्हारी याद आती है

वो तुम्हारा मोरपंखी नीला सूट

आँखों के आगे आसमान की तरह छा जाता है



वो दिन अब भी याद आते हैं

जब तुम्हारी मुस्कान में

चाँद का अक्स चमकता था

और हमारी बातों में परिन्दों का गान सुनाई देता था



वो तुम्हारा हरा कढ़ाईदार सूट

एक सरसब्ज बागीचा था

जो तुम्हारी देह-धरा को अलौकिक बनाता था



जब तुम झिड़कती थीं मुझे

मैं बच्चा हो जाता था

और तुम्हारी नाराज़गी पर

बुजुर्ग बनना पड़ता था मुझे



वो दिन अब नहीं लौटेंगे मम्मो

लेकिन मैं हूँ कि

बार-बार लौट आता हूँ इस शहर में

पता नहीं अब हम कभी मिलें न मिलें

पता नहीं इस विशाल शहर के किस कोने-अन्तरे में

तुम सम्भाल रही होंगी अपना घर

और एक मैं हूँ कि

हर फुरसत में सड़कों पर

खोजता फिरता हूँ

वही मोरपंखी नीला और हरा कढ़ाईदार सूट 