Sunday 31 January, 2010

ममता और वात्‍सल्‍य की कवयित्री : गेब्रिएला मिस्‍त्राल

साहित्य में नोबल पुरस्कार पाने वाली पहली लेटिन अमेरिकी कवयित्री गेब्रिएला मिस्त्राल का आरंभिक जीवन बड़ी कठिनाइयों में गुजरा। तीन साल की आयु में पिता की मृत्यु के बाद मां और बड़ी बहन के साथ संघर्ष करते हुए गेब्रिएला ने पंद्रह वर्ष की आयु में छद्मनाम से कविताएं लिखना  शुरु किया।  धीरे-धीरे स्थानीय अखबारों में कविताएं प्रकाशित होने लगीं। 7 अप्रेल, 1889 को चिली के विक्यूना गांव में जन्मी गेबिएला का मूल नाम लूसिला गोडोय था, लेकिन अपने दो प्रिय कवियों के नामों को मिला कर अपना छद्मनाम रखा । जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही एक रेलकर्मी रोमिलियो यूरेता से प्रेम हुआ लेकिन अज्ञात कारणों से प्रेमी ने आत्महत्या कर ली। इस हादसे से विचलित कवयित्री गहरे शोक में डूब गई और उसने मृत्यु के गीत लिखना शुरु कर दिया। बीस वर्ष की आयु में इस दुर्घटना ने मिस्त्राल को उस काव्य परंपरा का सूत्रपात करने का अवसर दिया जो लेटिन अमेरिकी साहित्य में पहले कभी नहीं हुआ अर्थात जीवन और मृत्यु को लेकर गहरी संवेदनाओं से ओतप्रोत कविताएं सामने आईं। पच्चीस वर्ष की आयु में चिली की राष्ट्रीय काव्य प्रतियोगिता में गेब्रिएला की मृत्यु गीतों की पुस्तक को प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

छोटे बच्चों को पढ़ाकर जीवनयापन करते हुए गेब्रिएला ने तमाम विपरीत परिस्थतियों के बावजूद निरंतर कविता लिखना जारी रखा। उनकी कविता और लेखन के केंद्र में चिली की लचर शिक्षा प्रणाली थी, जिसकी वजह से गरीब बच्चों, खासकर गांवों के बच्चों को अच्छी शिक्षा से वंचित रहना पड़ता था। गेब्रिएला अखबारों में इस पर निरंतर लिखती थीं, इससे स्कूल प्रशासन नाराज रहता था। इसी नाराजगी के कारण पहले स्कूल ने उन्हें जबरन स्कूल से निकाल दिया। कई स्कूलों में अध्यापन करते हुए वे 1921 में चिली के सबसे प्रतिष्ठित सेंटियागो हाई स्कूल की प्रिंसिपल बनीं। इस बीच वे एक स्कूल में 16 साल के पाब्लो नेरुदा से मिलीं और नेरुदा को यूरोपियन कवियों को पढ़ने की सलाह दी। प्रिंसिपल बनने के बाद उनका दूसरा कविता संग्रह आया तो वे अचानक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात हो गईं। इस संग्रह में उन्होंने बच्चों और ईसाई धर्म को लेकर प्रार्थना की शैली में कविताएं प्रस्तुत की थीं। तीन वर्ष बाद तीसरे कविता संग्रह में पूरी तरह बच्चों को लेकर कविताएं लिखीं। प्रिंसिपल बनने के कुछ समय बाद गेब्रिएला को मेक्सिको में स्कूली शिक्षा और पुस्तकालय व्यवस्था में सुधार करने के लिए बुला लिया गया। मेक्सिको से वे अमेरिका और यूरोप चली गईं। वहां वे मुख्य रूप से फ्रांस और इटली में रहीं, और अखबारों के लिए विपुल मात्रा में लिखा। साथ ही साथ वे लीग आफ नेशंस के बौद्धिक प्रकोष्ठ के लिए काम करती रहीं।

गेब्रिएला मिस्त्राल के लेखन में बच्चों के लिए गहरे प्रेम और वात्सल्य को अभिव्यक्ति मिली है। वे बच्चों को ईश्‍वर का प्रतिरूप मानती थीं। एक ईसाई संत ने कहा था कि गेब्रिएला मिस्त्राल की तमाम कविताएं प्रार्थना गीतों की तरह हैं। भारत में उनकी प्रसिद्ध कविता ‘उसका नाम है आज’ बहुत प्रसिद्ध है। यह कविता एस.ओ.एस. बालग्राम का आदर्श गीत बन गई है। गेब्रिएला ने कभी विवाह नहीं किया, लेकिन उनके भीतर मातृत्व की जो अद्भुत धारा अविरल प्रवाहित होती है वह विश्‍व साहित्य में उन्हें नोबल पुरस्कार तक ले गई। 1945 में नोबल पुरस्कार प्रदान करते हुए नोबल कमेटी ने कहा कि अपने मातृत्व भरे हाथें से गेबिएला मिस्त्राल एक ऐसा पेय प्रस्तुत करती हैं, जो धरती का स्वाद देता है और मनुष्य के दिलों को तृप्त करता है। उनकी कविता का निर्झर कभी नहीं थमेगा और लोगों की प्यास बुझाता रहेगा। और निश्‍चय ही गेब्रिएला मिस्त्राल की काव्यधारा 1954 में उनकी मृत्यु के बाद भी विश्‍व साहित्य में अमर है। पाब्लो नेरुदा जैसे कवि को दिशा दिखाने वाली गेब्रिएला को आज भी दुनिया की तमाम भाषाओं में पूरी श्रद्धा के साथ पढ़ा जाता है।

गेब्रिएला मिस्त्राल से मेरा पहला परिचय करीब बीस वर्ष पहले तब हुआ था, जब एक गैर सरकारी संगठन के लिए काम करते हुए मैंने उनकी कविता ‘उसका नाम है आज’ का अनुवाद किया था। हालांकि इस कविता से परिचय एस. ओ. एस. बालग्राम में बालिकाओं को निःशुल्क ट्यूशन पढ़ाने के दौरान हो चुका था, लेकिन उस समय यह पता नहीं था कि यह कविता गेब्रिएला मिस्त्राल की है। प्रस्तुत है कविता:

उसका नाम है आज

हम अपराधी हैं
बहुत सी गलतियों और भूलों के
लेकिन हमारा सबसे बड़ा अपराध है
बच्चों को निस्‍सहाय छोड़ देना
जीवन निर्झर को नकार देना

हमारी जरूरत की बहुत सी चीजें प्रतीक्षा कर सकती हैं
बच्चा प्रतीक्षा नहीं कर सकता

यही है वह वक्त
जब आकार ले रही हैं उसकी अस्थियां
बन रहा है रक्त
और विकसित हो रही हैं उसकी इंद्रियां

उसे हम जवाब नहीं दे सकते ‘कल’
उसका नाम है ‘आज’

यह आलेख राजस्‍थान पत्रिका के रविवारीय संस्‍करण में 31 जनवरी, 2010 को प्रकाशित हुआ।





Saturday 30 January, 2010

अनुभवों का महामेला

जयपुर में पांच साल से होने वाला अंतर्राष्ट्रीय साहित्य उत्सव अब नई उंचाइयां छूने लगा है और जयपुर के पर्यटन उद्योग के साथ कदमताल करते हुए जयपुर की नई पहचान बन चुका है। चार साल पहले जब यह उत्सव शुरु हुआ था, तब किसी ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि फिल्मी सितारों और अंग्रेजी तथा विदेशी लेखकों मुख्‍यत: विक्रम सेठ, सलमान रुश्‍दी, शोभा डे जैसे ख्यातनाम लोगों की चकाचौंध से लबरेज जयपुर इंटरनेशनल लिटरेचर फेस्टिवल आगे चलकर इस रेगिस्तानी राजधानी को साहित्य के केंद्र में ले आएगा।

नगाड़ो की ताल और शंखनाद के साथ 21 जनवरी, 2010 की सुबह खुशगवार मौसम में डीएससी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का शुभारम्भ हुआ। मशहूर अंग्रेजी लेखक विलियम डैलरिंपल, गुलजार, अभिनेता राहुल बोस और कई देशी- विदेशी लेखकों की मौजूदगी में साहित्योत्सव का आगाज हुआ। विलियम डैलरिंपल ने 2006 से चले आ रहे उत्सव की मुख्य बातों का जिक्र करते हुए इस विश्‍व के अनूठे साहित्य उत्सवों में से एक बताया। नमिता गोखले ने साहित्योत्सव के प्रमुख सत्रों की जानकारी दी।

इस बार इस आयोजन में दलित लेखन को लेकर दो विशेष सत्र रखे गए, जिनमें लेखक कांचा इलैया ने जन विवेक, उनकी उपेक्षा, दलितों और अछूतों से जुड़ी सोच, भ्रांतियों, हिंदू होने की गलत विचारधारा जैसे मुद्दे पर बात की। उन्होंने हिंदूवाद को आत्मिक फासीवाद करार दिया। हिंदी लेखक ओम प्रकाश वाल्मिकी ने साहित्योत्सव के 5वें वश में दलित लेखन पर ध्यान दिए जाने पर आभार जताया। मराठी, तेलगु और दक्षिण भाषाओं में इस साहित्य में रचे जाने की बात करते हुए उन्होंने साहित्य के भी दलित होने का प्रश्‍न उठाया। पी. सिवकामी ने हरिजनों के योगदान की उपेक्षा, हरिजन शब्द का अर्थ गैर दलितों की पिटी-पिटाई सोच और रंगभेद पर बात की। अजय नावरिया ने ‘अब और नहीं’ सत्र में शिरकत करते हुए दलित लेखन के मूल प्रश्‍नों को रेखांकित किया। पंजाबी दलित लेखन पर एक विशेष सत्र आयोजित किया गया। भारतीय दलित लेखन को लेकर हिंदी की पहली द्विभाषी ऑनलाइन पत्रिका ‘प्रतिलिपि’ ने अपना केंद्रित अंक भी इस अवसर पर जारी किया।

इस बार के साहित्योत्सव में पड़ौसी मुल्कों के साथ संबंधों पर चर्चा करने के लिए पाकिस्तान, श्रीलंका से भी लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता आए। पहली बार सिंधी भाषा को लेकर एक विशेष सत्र में चर्चा हुई, जिसमें पाकिस्तान से भी लेखक आए। हिंदी, राजस्थानी, उर्दू और संस्कृत साहित्य के भी सत्र हुए, जिनसे एक भारतीयता का अहसास हुआ। हालांकि उर्दू साहित्य से सिर्फ शीन. काफ. निजाम की शिरकत के कारण उर्दू वालों की थोड़ी नाराजगी भी रही। स्थानीय लेखकों में इस बात को लेकर खासी चर्चा रही कि पिछले साल विक्रम सेठ के सार्वजनिक मंच पर शराब पीने को लेकर विवाद खड़ा करने वाला दैनिक भास्कर अखबार इस दफा भाषा शृंखला का आयोजक बन गया।

इस विराट आयोजन में भाग लेने वाले नामी गिरामी लेखकों में नोबल पुरस्कार से सम्मानित कवि वोल शोयिंका का आगमन मुख्य आकर्षण रहा। उन्होंने अपनी रचनात्मक यात्रा के बारे में बात करते हुए कहानी कहने की कला, अपनी किताब के प्रकाशन और नोबेल पुरस्कार से जुड़े अनुभवों को सबके साथ साझा किया। फिल्मी हस्तियों में ओम पुरी, जावेद अख्तर, शबाना आजमी, गिरीश कर्नाड, प्रसून जोशी आदि ने शिरकत की। ओम पुरी ने कर्नाड के नाटक ‘तुगलक’ के अंशों का पाठ किया, वहीं उनकी पत्नी नंदिता ने ओम पुरी पर लिखी अपनी चर्चित पुस्तक के अंश पढ़े। गुलजार, जावेद अख्तर और प्रसून जोशी ने कविता पाठ किया। शबाना आजमी ने अपनी मां की पुस्तक के अंश सुनाए।

इस साहित्योत्सव की सबसे खूबसूरत बात यह है कि यहां लेखक खुद अपने पाठकों से मुखातिब होता है। वह रचना पाठ करता है, पाठकों के सवालों के जवाब देता है और पाठकों व प्रशंसकों के बीच एक सामान्य व्यक्ति की तरह रहता है। कोई छोटा या बड़ा नहीं होता, सब एक साथ भोजन करते हैं और किसी को वीआईपी नहीं समझा जाता। पाठक अपने प्रिय लेखक या कलाकार के साथ बातचीत करने के साथ फोटो भी खिंचवा सकते हैं।

राष्ट्रीय व अंतर्राष्‍ट्रीय ख्यातिप्राप्त सैंकड़ों लेखकों-कलाकारों का यह महामेला पांच दिन तक चलता है, जिसमें साहित्य के अलावा इतिहास, भाषा, संस्कृति, कला, सिनेमा, क्रिकेट से लेकर जीवन के विविध पक्षों पर बात होती है। रोज कई किस्म के सांस्कृतिक आयोजन भाग लेने वालों का ज्ञानवर्द्धन और मनोरंजन करते हैं। नाटक, नृत्य, संगीत, सिनेमा, चित्रकला और साहित्य का यह कुंभ छोटी काशी कहे जाने वाले जयपुर का महत्वपूर्ण वार्षिक आयोजन बन गया है। स्थानीय लेखक इस बात की शिकायत जरूर करते हैं कि इसमें अंग्रेजी का वर्चस्व है और भारतीय भाषाओं को कम महत्व दिया जाता है।

यह आलेख 'आउटलुक' हिंदी मासिक के फरवरी, 2010 अंक में प्रकाशित हुआ।



Wednesday 20 January, 2010

मोगली का सर्जक-रूडयार्ड किपलिंग



अगर जन्म के आधार पर नागरिकता मानी जाए तो मुंबई में जन्मे रूडयार्ड किपलिंग पहले भारतीय थे, जिन्हें 1907 में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। किपलिंग अंग्रेजी भाषा के पहले लेखक थे, जिन्हें अब तक रिकार्ड सबसे कम उम्र यानी 42 वर्ष की आयु में नोबल पुरस्कार मिला। 30 दिसंबर, 1865 को जन्मे किपलिंग के पिता जे.जे. स्कूल आफ आर्ट्स के प्रारंभिक शिक्षकों में थे। पांच साल की उम्र में किपलिंग को तीन वर्षीय बहन एलिस के साथ पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेज दिया गया। छह बरस तक दोनों भाई-बहनों को एक परिवार के बेहद कठोर अनुशासन में रहना पड़ा। इसके बाद किपलिंग को स्कूल में दाखिल करा दिया गया, जहां की आजाद और खुली हवा में एक रचनाकार के तौर पर किपलिंग में साहित्य के अंकुर फूटे। यहां के अनुभव कई बरस बाद ‘स्टॉकी एंड कंपनी’ कहानी संग्रह के रूप में प्रकाश में आए। स्कूल के बाद आगे की पढ़ाई के लिए किपलिंग को ऑक्सफोर्ड विश्‍वविद्यालय में प्रवेश लेना था, लेकिन आर्थिक हालात इजाजत नहीं देते थे। इसलिए पिता ने किपलिंग के लेखन कौशल को देखते हुए हिंदुस्तान में उसके लिए एक नौकरी ढूंढ़ ली। इस बीच पिता लाहौर चले गए थे, जहां वे मेयो कालेज आफ आर्ट के प्रिंसिपल और लाहौर म्यूजियम के क्यूरेटर थे। युवा किपलिंग को उन्होंने एक साप्ताहिक अखबार में सहायक संपादक की नौकरी दिला दी।

सत्रह साल से भी कम उम्र में अखबार में काम शुरु करने वाले किपलिंग की 21 साल की आयु में कविताओं की पहली किताब प्रकाशित हुई ‘डिपार्टमेंटल डिट्टीज़’। इसी वर्ष नए संपादक ने किपलिंग को अखबार के लिए कहानियां लिखने के लिए कहा तो युवा किपलिंग की लेखनी चल पड़ी। अगले साल से गर्मियों की छुट्टियों में शिमला जाने का सिलसिला शुरु हुआ तो किपलिंग ने शिमला के जनजीवन और प्रकृति को अपनी कहानियों में बेहद खूबसूरती से चित्रित किया। इस बीच 1887 में उन्हें ‘पायोनियर’ अखबार में तबादला कर इलाहाबाद भेज दिया गया। 1888 में पहला कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ ‘प्लेन टेल्स फ्राम द हिल्स’। इसके बाद एक बरस में किपलिंग के छह कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। विशेष संवाददाता के रूप में किपलिंग को राजपूताना भेजा गया, जहां बूंदी में उन्हें एक उपन्यास का विचार सूझा। इस यात्रा के अनुभव अखबार में तो छपे ही पुस्तकाकार भी प्रकाशित हुए। अगले साल किसी विवाद के कारण किपलिंग को अखबार से छुट्टी दे दी गई। वहां से छह महीने का वेतन अग्रिम मिला और अपनी सात किताबों के अधिकार बेचकर किपलिंग ने एक लेखक के तौर पर जीवनयापन करने का निश्‍चय किया और लंदन के लिए रवाना हो गए।

लंदन में उन्होंने एक कहानी संग्रह और एक कविता संग्रह लिखा, जिनमें भारतीय जनजीवन और ब्रिटिश सैनिकों के अनुभवों का सजीव चित्रण किया गया है। 1894 में किपलिंग ने अपनी विश्‍वविख्यात कृति ‘जंगल बुक’ की रचना की, जिसे आज भी बाल साहित्य की श्रेणी में अप्रतिम माना जाता है। भेड़ियों द्वारा उठाकर जंगल में ले जाए गए बच्चे मोगली की कहानियां इस कदर लोकप्रिय हुईं कि इस पर कई फिल्में और धारावाहिक विश्‍व भर में बने। आज भी यह बच्चों की लोकप्रिय पुस्तक है। स्काउट आंदोलन के प्रणेता बैडन पावेल ने ‘जंगल बुक’ से प्रेरणा लेकर स्काउटिंग के कई कार्यक्रमों की संरचना की। किपलिंग ने इसकी सफलता से उत्साहित होकर इसका दूसरा भाग भी लिखा। इसके बाद वे फिर से कहानियां लिखने लगे और 1899 तक तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। बूंदी में बैठकर उन्होंने जिस उपन्यास की कल्पना की थी वह 1901 में ‘किम’ के रूप में सामने आया। अनाथ आइरिश किशोर किम और बौद्ध भिक्षु तेशू लामा की रोमांचक हिमालय यात्रा और दोनों की अपने-अपने स्तर पर आत्म और अस्मिता की खोजयात्रा बेहद रोचक है। यूं तो इस उपन्यास के दीवाने पूरी दुनिया में हैं, लेकिन यह पंडित नेहरू की भी प्रिय पुस्तकों में रही है।

किपलिंग ने अपने जीवन में यात्राएं बहुत कीं, इसलिए उनके पास दुनिया के कई देशों के अनुभव थे, बहुत से लोगों के जीवन में झांकने का उन्हें मौका मिला, और सबसे बड़ी बात यह कि किपलिंग बेहद कल्पनाशील रचनाकार थे। इसलिए यथार्थ और कल्पना के अद्भुत सम्मिश्रण से वे जबर्दस्त कहानियां, उपन्यास और यात्रा संस्मरण लिख सके। उनकी कल्पनाशीलता इसी से पहचानी जा सकती है कि मोगली जैसे पात्र की रचना उन्होंने अखबार में पढ़ी एक खबर के आधार पर की और उसके इर्द-गिर्द महान बालसाहित्य का सृजन किया। उनके लेखन में ब्रिटिश सैनिकों की पीड़ा, सैनिक होने का गर्व, पराए देश में परिजनों से दूर रहने का दुख, आम भारतीय इंसान का सहज जीवन और यहां का विविधरंगी परिदृश्‍य बखूबी देखने को मिलता है। अंग्रेजी साहित्य में भारतीय जनजीवन का जीवंत और प्रामाणिक चित्रण संभवतः पहली बार किपलिंग ने ही किया। ‘गंगादीन’ जैसे मामूली चरित्र को किपलिंग ने एक कविता से अमरत्व प्रदान कर दिया, जो सैनिकों के लिए महज पानी लाता था। किपलिंग को भारतीय नामों और चीजों से इस कदर लगाव था कि जब अमेरिका में उन्होंने अपना घर बनाया तो उसका नाम रखा ‘‘नौलखा’’। यह नाम लाहौर किले की नौलखा बारादरी से उन्हें सूझा था। किपलिंग की प्रारंभिक पुस्तकों के कवर पर सौभाग्य और समृद्धि के प्रतीक के रूप में स्वास्तिक और सूंड में कमल पकड़े हाथी के चित्र प्रकाशित होते थे, लेकिन कालांतर में जर्मन नाजियों द्वारा स्वास्तिक अपनाए जाने पर अपनी तमाम किताबों से उन्होंने स्वास्तिक हटवा दिए।

किपलिंग की प्रकाशित पुस्तकों की सूची पचास से अधिक है, लेकिन एक ‘जंगल बुक’ ही उन्हें विश्‍वसाहित्य में अमर रखने के लिए पर्याप्त है। पाठकों को उनकी वो रोमांटिक कहानियां बेहद अच्छी लगती हैं, जिनमें अंग्रेज सुदूर देशों की साहसिक यात्राएं करते हैं और विजय प्राप्त करते हैं। हालांकि किपलिंग पर ब्रिटिश उपनिवेशवाद का पोषक और समर्थक होने के आरोप लगते रहे हैं, किंतु उनके प्रशंसकों का कहना है कि उनकी कहानियों और उपन्यासों के पात्र उपनिवेशवादी मानसिकता के हैं और उसी रूप में किपलिंग ने उनका चित्रण किया है। खुद किपलिंग एक सच्चे देशप्रेमी होने के नाते ब्रिटिश राज की भले ही जयगाथा गाते रहे हों, लेकिन उन्होंने कई बार ब्रिटिश राज के दरबारी कवि और नाइट की पदवी को ठुकराया। 18 जनवरी, 1936 को पेप्टिक अल्सर से किपलिंग का देहांत हुआ।

यह आलेख राजस्‍थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्‍ट में 17 जनवरी, 2010 को 'विश्व के साहित्यकार' शृंखला में प्रकाशित हुआ।

Sunday 17 January, 2010

आधी दुनिया को आधी पंचायत

गांव की राजनीति में बड़े बदलावों की आहट है, वही गांव जिसे हिंदुस्तान का चेहरा कहा जाता है। पहली बार पंचायतों में महिलाओं को पचास फीसदी आरक्षण के साथ राजस्थान में पहले चुनाव हो रहे हैं, एक तिहाई के आरक्षण से जब तस्वीर बदली है तो इससे क्या होगा, अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। यह बदलाव की प्रक्रिया इतनी व्यापक है िक राजनीति ही नहीं, सामाजिक-आर्थिक बदलाव भी होने तय हैं, महिलाओं यानी आधी दुनिया को आधी पंचायत के मुद्दे की एक गहरी खोज-पड़ताल...

इस बार राजस्थान में पंचायत चुनावों की छटा ही अलग है। स्थानीय निकाय चुनावों में पचास प्रतिशत आरक्षण ने पहले नगर पालिका और नगर निगम चुनावों में महिलाओं को जबर्दस्त राजनैतिक शक्ति प्रदान की और अब ग्राम पंचायतों के माध्यम से महिलाएं प्रदेश की राजनीति में जमीनी स्तर पर पूरी क्षमता से प्रवेश कर व्यापक बदलाव लाने की तैयारी कर रही हैं। भारतीय लोकतंत्र के साठ साल के जश्‍न में यह ऐतिहासिक अवसर है, जब एक प्रदेश में इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं को राजनीति में सीधे भागीदारी करने का मौका मिला है। जानकार लोगों का मानना है कि इस भागीदारी से राजनैतिक परिदृश्‍य में ही नहीं, बल्कि राजनीति के आधारभूत मुद्दों में भी अनपेक्षित परिवर्तन दिखाई देंगे। सही मायने में लोकतंत्र का एक साफ-सुथरा चेहरा दिखाई देगा, जिसमें ग्रामीण क्षेत्र की उन महिलाओं को भी आगे आने का अवसर मिलेगा, जिन्होंने खुद कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि वे निरक्षर गृहिणी होने के बावजूद किसी दिन समाज में एक राजनैतिक ताकत के तौर पर प्रतिष्ठित होंगी। कहने के लिए आरक्षण पचास प्रतिशत है, लेकिन अनारक्षित सीटों पर भी महिलाएं चुनाव लड़ सकती हैं और अपनी आवाज बुलंद कर सकती हैं। इसीलिए महिलाओं का नारा है कि आधी नहीं अब सारी सीटें हमारी हैं। शिक्षा और राजनैतिक चेतना ने गांवों में अब महिलाओं को अपने पुरुष रिश्‍तेदारों के इशारों पर चलने वाली आज्ञाकारी नेत्री की परिधि से बाहर ला खड़ा किया है, जहां वह एक स्वतंत्रचेता जनप्रतिनिधि के रूप में अपने दायित्वों को पूरी जिम्मेदारी से पूरा करने की तैयारी कर रही है।


चाकसू तहसील की ग्राम पंचायत निमोड़िया की वार्ड पंच सराजन बानू के पास नाम मात्र की जमीन है, लेकिन वह प्रदेश की चुनिंदा अल्पसंख्यक महिला जनप्रतिनिधियों हैं। अशिक्षित और अल्पसंख्यक होने के बावजूद सराजन बानू ने गांव में बालिका विद्यालय को क्रमोन्नत कराने, सड़क बनवाने और पट्टे दिलाने जैसे कई काम करवाकर गांव के लोगों का दिल जीत लिया।



बदल गया चुनावी एजेण्डा

कई दशकों से गांवों में पंचायत चुनावों का एजेण्डा वहां की जातिवादी राजनीति रही, लेकिन महिलाओं और दलित-वंचितों के आरक्षण के बाद गांवों में विकास कार्यक्रम चुनावी एजेण्डे में शामिल हुए तो बुनियादी मुद्दे सामने आए। पानी, बिजली, सड़क, स्कूल, चिकित्सा, सफाई, जलावन की लकड़ी, चरागाह, शौचालय और गरीबों को रोजगार उपलब्ध कराने जैसे आधारभूत मुद्दों को लेकर ग्रामीण समाज में चेतना जागृत हुई और गांवों की राजनीति का समूचा परिदृश्‍य बदल गया। विकास कार्यक्रमों को लेकर एक महत्वपूर्ण बात विगत कुछ वर्षों में यह देखी गई कि जहां पुरुषों की प्राथमिकता गांवों में स्कूल-चिकित्सालय आदि के निर्माण की होती हैं वहीं महिलाओं की रूचि गांवों में सुविधाएं उपलब्ध कराने में ज्यादा रहती है। वजह साफ है, चूंकि महिलाएं सदियों से गांवों में बुनियादी सुविधाएं ना होने के कारण परेशानियों का सामना करती आई हैं, इसलिए उनकी प्राथमिकता सुविधाओं को लेकर होती हैं और निर्माण कार्यों में ठेकेदारी व्यवस्था के चलते भ्रष्टाचार की गुंजाइश ज्यादा रहती है तो पुरुष उनको प्राथमिकता देते हैं। महिलाएं गांवों में बालिका शिक्षा और चिकित्सालय के लिए सबसे ज्यादा चिंतित रहती हैं।


राजसमंद जिले की खमनोर पंचायत समिति के ग्राम सेवल की सरपंच नाथी बाई आदिवासी और अशिक्षित है। पहली बार में चुनाव जीतने वाली नाथी बाई ने अपने क्षेत्र में विकास के सैंकड़ों कार्य करवाकर गांव की शक्ल ही बदल डाली।


राजनैतिक माहौल में परिवर्तन



आरक्षण के बाद गांवों का राजनैतिक माहौल बिल्कुल बदल गया है। राजनैतिक दुश्‍मनियां बहुत तीव्र हो गई हैं। बड़े नगरों और हाईवे से लगते गांवों में जमीनों के दाम बढ़ने से जमीनें बेचकर अचानक अमीर हुए ग्रामीणों की राजनैतिक आकांक्षाओं को पंख लग गए हैं। पहले की जातिवादी राजनीति का स्थान अब पैसे की राजनीति ने ले लिया है। एक सामान्य पंच या सरपंच के चुनाव में एक लाख का खर्च मामूली बात है। लेकिन, गांवों के लोग इस मायने में बहुत समझदार हैं, वे पैसे के बल पर राजनीति करने वालों को अपने वोट की ताकत का तुरंत अहसास भी करा देते हैं। महिला आरक्षण के बाद महिलाओं में आई राजनैतिक चेतना ने उम्मीदवार देखकर वोट देने की प्राथमिकता को बढ़ावा दिया है, जिससे तमाम चुनावी समीकरण गड़बड़ा जाते हैं। यह आरक्षण की ही बदौलत संभव हुआ है कि गांव वालों ने पैसे के दम पर चुनाव जीतने की आकांक्षा रखने वाले रसूखदारों के डमी उम्मीदवार के मुकाबले भेड़-बकरी चराने वाली सामान्य निरक्षर महिलाओं को पंच-सरपंच चुना।





भ्रष्ट व्यवस्था से लड़ती महिला जनप्रतिनिधि


भारत में भ्रष्ट व्यवस्था की मार सबसे ज्यादा गांवों को सहन करनी पड़ती है। वहां हर स्तर पर भयानक भ्रष्टाचार है। राजस्थान में अरूणा राय के मजदूर किसान शक्ति संगठन की ओर से किए गए विभिन्न सामाजिक अंकेक्षणों में यह साबित हुआ है कि गांवों में विकास के लिए आए हुए पैसे का जमकर दुरुपयोग होता है। पच्चीस बरस पहले कहा गया राजीव गांधी का जुमला आज भी गांवों में सत्य सिद्ध हो रहा है, एक रुपये में पंद्रह पैसे ही गांवों तक पहुंचते हैं। इसमें महिला जनप्रतिनिधियों की स्थिति इसलिए विकट है कि वे सरकारी तंत्र की कारगुजारियों से परिचित ना होने के कारण पिछड़ जाती हैं। कई सरकारी कार्यालयों के आए दिन चक्कर लगाना, अधिकारी और कर्मचारियों से बात करना और अपना पक्ष रखना, विकास कार्यों को क्रियान्वित करवाना जैसे काम एक महिला जनप्रतिनिधि के लिए आसान नहीं है। लेकिन पिछले एक दशक में यह बात साबित हुई है कि अधिकारी महिला जनप्रतिनिधियों की बात सुनने लगे हैं और धीरे ही सही उनके काम भी करने लगे हैं। दूसरी तरफ महिला पंच-सरपंच भी यह बात सीखने में सफल हुई हैं कि उनकी राजनैतिक ताकत अधिकारियों को काम करने के लिए विवश कर सकती है। ग्राम सेवकों का गांवों की व्यवस्था में वर्चस्व होता है, वह महिला जनप्रतिनिधियों को अपनी कठपुतली बनाकर रखता है। लेकिन महिला पंच-सरपंचों को यह बात समझ में आ गई है कि किसी परिजन की मदद से ग्राम सेवक की कारगुजारियों से कैसे बचा जा सकता है और सही काम कैसे कराया जा सकता है।

सहायता के लिए आगे आते स्वयंसेवी संगठन

कई सालों से गांवों के विकास में स्वयंसेवी संगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन गैर सरकारी संगठनों ने पंचायत चुनाव में आरक्षण व्यवस्था के बाद महिला नेतृत्व को उभारने में जबर्दस्त भूमिका निभाई है। यूनाइटेड नेशन डेमोक्रेसी फण्ड ने विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से ग्रामीण लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए अंशदान किया है। ये संगठन चुनावपूर्व मतदाता जागरूकता अभियान चलाकर पंचायत चुनावों के बोर में ग्रामीणों को बुनियादी मसलों पर सोचने के लिए तैयार करते हैं। महिलाओं को सामूहिक प्रशिक्षण के माध्यम से तैयार करते हैं और गांवों में विकास की प्राथमिकताएं क्या हों और कैसे चुनाव लड़ा जाता है आदि को लेकर महिलाओं और ग्रामीण समुदाय को समझाते हैं। पिछले साल जयपुर में महिला जनप्रतिनिधियों के एक सम्मेलन कई महिलाओं ने इस बात पर पूर्ण सहमति जताई कि गैर सरकारी संगठनों से मिले प्रशिक्षण ने उनके भीतर आत्मविश्‍वास बढ़ाया है और उनके भीतर नेतृत्वकारी भावना के साथ कई सकारात्मक चीजों का विकास किया है, जिससे वे अपनी भूमिका को बेहतर समझने लगी हैं। यह सकारात्मकता ही भविष्य की बेहतरीन महिला जनप्रतिनिधियों को तैयार करने में सहायक होगी।

बाड़मेर की रामसर पंचायत समिति की अशिक्षित वार्ड पंच खातू देवी ने घर वालों के विरोध और गांव वालों के समर्थन के बीच चुनाव जीता। वार्ड पंच बनने से पहले वह मजदूरी करती थी, आज वह नरेगा में लोगों को मजदूरी दिलवाती हैं और गांव वालों की तमाम समस्याओं को हल करने की कोशिश करती हैं।


सामूहिक शक्ति का प्रदर्शन अनिवार्य

ग्रामसभा और वार्ड सभा ग्राम पंचायतों की आधारभूमि हैं जो गांवों के विकास की कार्ययोजना बनाती हैं। दुर्भाग्य से ये सभाएं बहुत कमजोर हैं और खुद गांव वाले ही इनमें रूचि नहीं लेते हैं, जिसके चलते प्रशासनिक शिथिलताओं को और बल मिलता है। विभिन्न किस्मों की गुटबाजी ने इन सभाओं को कमजोर किया है, अगर ये सभाएं मजबूत हों और सामूहिक शक्ति का प्रभावी प्रदर्शन करें तो उच्चाधिकारियों को गांवों के सर्वांगीण विकास के लिए मजबूर कर सकती हैं। गैर सरकारी संगठन इस बात को लेकर गांव वालों को समझा रहे हैं कि इन सभाओं के माध्यम से फैसले लेकर यदि सामूहिकता प्रदर्शित की जाए तो आशातीत परिणाम आ सकते हैं। ग्रामीण समाज वैसे भी सामूहिकता में विश्‍वास कर जीता है, इसलिए अगर वे इस बात को समझ लें कि अभी तक वे सामूहिक रूप से सिर्फ जीवनयापन का संघर्ष कर रहे हैं और अब उन्हें बेहतर जीवन के लिए संघर्ष करना है तो परिस्थितियां बदलते देर नहीं लगेगी।

बारां जिले की बालदा पंचायत समिति की सरपंच संतोष सहरिया ऐसी महिला जनप्रतिनिधि है, जिसने आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के तौर पर काम शुरु किया, निर्विरोध सरपंच चुनी गई। ग्रामीण क्षेत्र में उनके द्वारा कराए गए विकास कार्यों के आधार पर पिछले विधान सभा चुनावों में उनका नाम एक बड़े राजनैतिक दल के पैनल में रहा।


महिला नेतृत्व : आदर्श नेतृत्व


महिलाओं को पुरुषों की तुलना में आदर्श नेत्री मानने वालों में आउटलुक मासिक के संपादक नीलाभ मिश्र कहते हैं कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में कम भ्रष्ट होती हैं, इसलिए विकास कार्यक्रमों के माध्यम से वे गांवों का ज्यादा विकास कर सकती हैं। आरक्षण के बाद मतदान में महिलाओं का प्रतिशत भी बढ़ा है। ग्रामीण समाज अब लिंग भेद को लेकर सजग हो रहा है। खुद महिलाओं की आत्म छवि बदल रही है। अब गांवों में पढ़ी-लिखी महिलाओं को चुनाव में प्रमुखता दी जाने लगी है और जब ऐसी महिलाएं राजनीति में आएंगी तो निश्चित रूप से ग्रामीण भारत का परिदृश्‍य पूरी तरह बदल जाएगा। जिस तरह घर में एक महिला सबका बराबर ध्यान रखती है, उसी तरह ग्राम समाज में वह जनप्रतिनिधि के तौर पर तमाम किस्म के भेदभावों से उपर उठकर समग्र और समरूप विकास के बारे में सोच सकती है। नीलाभ कहते हैं, चूंकि एक बार महिलाओं के राजनीति में आने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई है इसलिए अब पीछे जाना संभव नहीं है। आगे का भविष्य अब पूरी तरह महिला जन प्रतिनिधियों के हाथ में होगा। सरपंच पति या प्रॉक्सी सरपंच जैसे जुमले ग्रामीण राजनीति से धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं और एक-दो चुनावों के बाद ये इतिहास में समा जाएंगे।

यह आलेख डेली न्‍यूज़, जयपुर के रविवारीय परिशिष्‍ट 'हम लोग' में 17 जनवरी, 2010 को प्रकाशित हुआ।

Sunday 3 January, 2010

कविता : होटल के इस कंबल में


जब भी किसी होटल में ठहरता हूं तो स्‍नानघर या ड्रेसिंग टेबल के आईने पर चिपकी बिंदियां उस कमरे को घर बना देती हैं। अगर किसी होटल में यह सब ना हो तो लगता है, यह होटल कम चलता है या यहां साफ-सफाई का खास खयाल रखा जाता है। राजेश जोशी ने जयपुर के स्‍वीट ड्रीम होटल में एक शानदार कविता लिखी थी। ऐसा किसी भी कवि के साथ हो सकता है, कविता कभी भी और कहीं भी सूझ सकती है।
दिसंबर, 2005 की एक सुबह दिल्‍ली के एक होटल में सुबह की दूसरी पारी की नींद से जागते हुए जो वाकया घटा, उसने इस कविता को जन्‍म दिया। अब तक इस कविता को मैंने तीन जगह पढ़ा और तीनों बार ही इस पर खासी दाद मिली। पहली बार कराची की कल्‍चर स्‍ट्रीट पर, दूसरी बार माउण्‍ट आबू के शरद समारोह में और अभी 1 जनवरी, 2009 को जयपुर में एक काव्‍य गोष्‍ठी में। हमेशा की तरह मैं इस कविता को लेकर भी कुछ सशंकित हूं। पाठक और मित्रगण बताएं कि कैसी है यह कविता।

न जाने किसका है यह
नर्म, रेशमी, लंबा, सुनहरा बाल
जो होटल के इस कंबल में
मेरे चेहरे और कपड़ों में उलझ गया है

बहुत आहिस्‍ता से
सुलझाया है मैंने इसे
ताकि टूटे नहीं
एक बार टूटे हुए को
दोबारा तोड़ना कोई अच्‍छी बात नहीं

इस बाल की रंगत
और खुश्‍बू बताती है
यह ज़रूर किसी दुल्‍हन का होगा
तो क्‍या यह कंबल
किसी प्रेम का साक्षी रहा है

इस सर्द सुबह में
एक अकेले पुरुष को
कितना गर्म अहसास दे गया है
यह नर्म, रेशमी, लंबा, सुनहरा बाल

इस बाल का इकबाल बुलंद रहे
उस दुल्‍हन की मुहब्‍बत बुलंद रहे