Saturday 17 October, 2009

रोशनी के रंग हजार





रोशनी और अंधकार के बिना इस सृष्टि में कुछ भी संभव नहीं होता। अंधेरा था इसलिए रोशनी का जन्म हुआ। कह सकते हैं कि रोशनी अंधकार की बेटी है यानी उजाला तम का पुत्र है। चित्रकला में कहा जाता है कि सफेद कोई रंग नहीं है, वह रंगों की अनुपस्थिति से उपजी रिक्तता है। इस प्रकार रोशनी अंधकार की अनुपस्थिति है लेकिन रिक्तता नहीं, मानव समाज के लिए वह अंधकार से पैदा होने वाली रिक्तता की पूरक है। विज्ञान कहता है कि रोशनी इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन यानी विद्युतचुंबकीय विकिरण है। लेकिन भारतीय मनीषा ने ईसा से छह सौ बरस पहले कह दिया था कि यह सृष्टि जिन पंचतत्वों से बनी है उसमें अग्नि बहुत महत्वपूर्ण है। अग्निरूपी इस रोशनी की मनुष्य सभ्यता में लाखों बरसों से प्रतिष्ठा रही है, देश-धर्म के बंधनों से बहुत ऊंचा स्थान रहा है रोशनी का। हर जाति, मजहब, देश, काल में रोशनी को पवित्र माना गया है तो इसीलिए कि रोशनी से मनुष्य का रिश्ता जन्‍म से शुरू होता है और गर्भावस्था के तम से मुक्त होने और रोशन दुनिया में आने की कामना उसे रोशनी के हजार रंगों की ओर लिए चलती है। कहने को रोशनी के सिर्फ सात रंग होते हैं, लेकिन यह मनुष्य ही है जिसने उसे हजारों आयाम दे दिए हैं। इंसान के लिए रोशनी अब सिर्फ दिन के उजाले और रात में काम आने वाली रोशनी भर नहीं, बल्कि जिंदगी के हर हिस्से में रोशनी फैला देने से है।

रोशनी का इतिहास
विज्ञान में रोशनी को पहले यह माना जाता था कि प्रकाश की संरचना पदार्थ जैसी है, जिसे आगे चलकर आइंस्टीन तक आते आते पूरी तरह नकार दिया गया। इस परंपरा में आदि मुस्लिम वैज्ञानिक इब्न अल हसैन के अलावा देकार्त, न्यूटन, रॉबर्ट हुक और थॉमस यंग की खोजों को नहीं भूला जा सकता। अब विज्ञान कहता है कि रोशनी एक प्रवाहमान चीज है। लेकिन सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखें तो भारत में दीपावली का त्यौहार जिस तरह भगवान राम के अयोध्या आगमन को लेकर मनाया जाता है, उसी तरह दुनिया भर में दीपोत्सव को लेकर अनेक कथाएं प्रचलित हैं, और लगभग सभी धर्मों और संस्कृतियों में रोशनी का उत्सव साल में एक बार जरूर मनाया जाता है। मसलन ईसाई समुदाय क्रिसमस को दीपावली की तरह मनाता है, इस्लाम में पैगंबर मोहम्मद साहब के जन्मदिन यानी बारावफात को चराग रोशन किये जाते हैं, सिक्ख समुदाय में गुरूनानक जन्मदिवस पर रोशनी सजाई जाती है, महावीर स्वामी की जयंती पर जैन और महात्मा बुद्ध की जयंती पर बौद्ध धर्मावलंबी अपने घर और पूजास्थलों को रोशन करते हैं। पारसी तो हैं ही अग्निपूजक। वैसे लगभग सभी धर्मों में पूजाघरों में दीपक जलाना या शमा रोशन करना प्रतिदिन का रिवाज है। मंदिर, मस्जिद, जिनालय, चैत्यालय में दीया और गिरजाघर में शमा रोशन करना वस्तुत: रोशनी की आराधना ही है। और इसके पीछे है मनुष्य की वह आदिम समझ जिसके चलते उसने प्रकृति की सबसे ताकतवर चीजों में अग्नि को सबसे उच्च स्थान दिया। जब पहली बार मनुष्य ने अग्नि का रौद्र रूप देखा होगा, फिर वो चाहे ज्वालामुखी से निकली हो, आकाश से बरसी हो या पेड़-पत्थररों के टकराने से पैदा हुई हो, तभी उसके प्रति भय मिश्रित श्रद्धा का भाव पैदा हुआ होगा। यही आगे चलकर दीपक या शमा जलाने में बदल गया। मानव सभ्य्ता का इतिहास रोशनी का इतिहास है, जिसमें येन केन प्रकारेण अंधकार से मुक्त होने और रोशन दुनिया बसाने की चाहत छुपी हुई है, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’।

रोशनी का दर्शन
सभ्यता के प्रारंभ से ही रोशनी मनुष्य के चिंतन का केंद्र रही है, इसीलिए रोशनी अपने भौतिक अर्थ और अभिप्राय: से आगे चलकर मनुष्य जीवन को सांगोपांग रूप से प्रकाशमान करने के व्यापक और विस्तृत अर्थ में तब्दील हो गई है। मानव समाज को कैसे एक ऐसी रोशन दुनिया बनाया जाए जिसमें किसी भी प्रकार का अंधकार ना हो, यह चिंतन सदियों से चला आ रहा है। भारतीय दर्शन परंपरा ने पहली बार रोशनी को इतने व्यापक और बहुलतावादी दृष्टिकोण से देखा और संपूर्ण सृष्टि को प्रकाशमान करने की परिकल्पना की। सबसे पहले सांख्य और वैशेषिक परंपरा के दार्शनिकों ने प्रकृति के मूल तत्वों पर चिंतन करते हुए प्रकाश को जीवन का महत्वपूर्ण कारक माना। महात्मा बुद्ध के अनुयायियों और जैन मुनियों ने इस परंपरा को समृद्ध करते हुए मनुष्य समाज को संपूर्णता में प्रकाशमान बनाने को लेकर मौलिक चिंतन किया, जिससे बहुत से नैतिक और सहज मानवीय मूल्यों की व्यापक परिकल्पना संभव हुई। इस प्रकार का प्रकाशमान चिंतन लगभग सभी धर्मों में हुआ और एक किस्म की वैश्विक सभ्य मानव समाज की सृष्टि के लिए रोशन खयालों की दुनिया का विस्तार हुआ।

हर तरफ रोशन हो दुनिया
आज के मानव समाज को हर तरफ रोशनी चाहिए, सिर्फ घरों की बिजली नहीं, लोगों के दिमाग भी रोशन होने चाहिए। शिक्षा की रोशनी हर ओर फैले, धार्मिक, राष्ट्रवादी और जातिवादी कट्टरता का अंधकार हटे, अंधविश्वास का तमस छंटे, समानता का प्रकाश फैले, मनुष्य जीवन के तमाम अंधकार दूर हों। दुनिया के सारे दीपोत्सव यही कामना करते हैं।
यूं दुनिया के विभिन्नि हिस्सों में मनाए जाने वाले लगभग सभी दीपोत्सव कृषक परंपरा से जुड़े हैं यानी फसल पकने के बाद के उत्सव हैं जिसमें नवान्न के साथ व्यक्ति और समुदाय की प्रगति की कामना जुड़ी हुई है। इस प्रकार देखा जाए तो यह दुनिया में किसी भी मनुष्य के भूखा ना रहने की कामना और स्वस्‍थ मानव समाज की परिकल्‍पना से जुड़ा दीपकामना का उत्सव है। आज के किसानों के हालात देखकर क्या हम एक बार फिर उस किसान के बारे में सोच सकते हैं जो बहुत बुरी हालत में है, आत्महत्या करने को मजबूर है। क्यों किसान के बेटे बंदूक उठा रहे हैं और क्यों खुशियों के पटाखों की जगह आतंक के खौफनाक धमाके हर ओर सुनाई दे रहे हैं। इन हालात में एक दीपक उनके नाम भी रोशन किया जाए, जो हमसे बिछुड़े और उनके नाम भी जो राह भटक कर अंधकार की राह जा रहे हैं। हर मजहब में जलने वाला दीपक मनुष्य के दिल और दिमागों को रोशन करे, इसी सोच के साथ सही मायनों में शुभ होगा दीपोत्सव।

सांध्य रवि ने कहा
मेरा साथ देगा कौन
सुनकर जगत सारा
रह गया निरूत्तर मौन
एक माटी के दीये ने कहा
नम्रता के साथ
जितना हो सकेगा
मैं करूंगा नाथ
रवींद नाथ टैगौर



यह आलेख जयपुर से प्रकाशित डेली न्‍यूज़ के रविवारीय 'हम लोग' की टॉप स्‍टोरी के रूप में 11 अक्‍टूबर, 2009 को प्रकाशित हुआ। चित्र गूगल से साभार।

Monday 5 October, 2009

मैं महज एक काला हब्‍शी हूं



नोबल पुरस्कार के इतिहास में अब तक सिर्फ तीन अश्वेत साहित्यकारों को पुरस्कृत किया गया है, जिनमें वोले शोयिंका और टोनी मॉरिसन के साथ डेरेक वालकोट का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। वेस्टन इण्डीज के छोटे-से देश सेंट लूसिया के बेहद प्रतिष्ठित कवि डेरेक वालकोट को जब 1992 में नोबल पुरस्कार दिया गया, तब इस कैरेबियन द्वीप समूह के साहित्य की ओर विश्व समुदाय का ध्यान गया। यूरोप और वेस्ट इण्डीज की संस्कृति के बीच बंजारों की तरह घूमने वाले वालकोट के सृजन संसार में कविता बहुत गहराई के साथ रची बसी है। गुलामों जैसी विरासत से चलकर नोबल पुरस्कार तक की सृजनयात्रा बेहद रोचक और दिल दहला देने वाली भी है, लेकिन वालकोट की मस्तमौला फकीरी जैसी काव्यात्मक जिंदगी एक आदर्श भी है और मानक भी। यह जानकर बेहद आश्चर्य होता है कि नोबल पुरस्कार लेते वक्त वालकोट ने भारतीय रामलीला का विशद वर्णन किया था। दरअसल वे ट्रिनीडाड के एक गांव में भारतीय मूल के लोगों द्वारा खेले जाने वाली रामलीला की बात कर रहे थे और उनके नोबल भाषण का एक लंबा हिस्सा उस रामलीला के बहाने जड़ों से उखड़े, गुलामी से निकलकर आए, उपनिवेशवाद के सताए लोगों के दर्द को बयान कर रहा था, जिसे पहली बार विश्वमंच पर इतना बड़ा सम्मान दिया जा रहा था।


चित्रकार पिता और टीचर मां के यहां वालकोट एक जुड़वां भाई रोड्रिक के साथ 23 जनवरी, 1930 को वालकोट का जन्म एक सुदूर द्वीप के एक गांव में हुआ। 18 बरस की उम्र में पहला कविता संग्रह आया और ‘इन ए ग्रीन नाइट’ संग्रह से वे चर्चा में आए। पत्रकारिता और देश-विदेश में अध्यापन करते हुए जीवनयापन किया और इन दिनों वे ट्रिनीडाड में रह रहे हैं। वालकोट के लेखन में उनके जीवन के आत्मसंघर्ष और कैरेबियन द्वीप समूह में रहने वाले लोगों की जिंदगी का सच्चा लेखा-जोखा देखने को मिलता है।

‘द फॉरच्यून ट्रेवलर’ और ‘मिडसमर’ में वालकोट ने अमेरिका में खुद को एक अश्वेत कवि के रूप में गहराई से देखने की कोशिश की। क्योंकि अमेरिका प्रवास के दौरान उन्हें रह-रह कर अपना कैरेबियाई परिवेश याद आता था। एक कवि ह्रदय व्यक्तित्व अपनी जड़ों उखड़कर कैसे अपने आपको तनहा महसूस करता है, इसे बहुत शिद्दत से वालकोट ने अपने इन संग्रहों में रेखांकित किया है। उनकी किताबों के ‘कास्टअवे’ और ‘द गल्‍फ' जैसे शीर्षक भी उनकी इसी मानसिक उधेड़बुन को व्यक्त करते हैं। उन्होंने अपने एक साक्षात्का्र में कहा था कि हम चाहे कहीं भी रहें, अमेरिका में या लंदन में, हमें महसूस होता है कि जैसे हमें अलग रखा जाता है, यह एक किस्म का अलगाववाद है।

वालकोट की सबसे मशहूर कविता है ‘ओमेरोस’, जो होमर से प्रेरित है। इस काव्यकृति में वालकोट ने होमर के प्रसिद्ध नाटक ‘इलियड’ और ‘ऑडिसी’ को कैरेबिया पृष्ठभूमि में पुनर्सृजित किया। चौंसठ अध्यायों वाली इस लंबी कविता में वालकोट ने निर्वासन, बिछुड़े हुए लोगों और कैरेबियाई जनजीवन का चित्रण करते हुए नस्लवाद के प्रति अपना गुस्सा और उपनिवेशवादी प्रवृत्तियों खासकर औपनिवेशिक संस्कृति का समूल नकार प्रस्तुत किया है। इस किताब में वे एक जगह लिखते हैं, ‘मैं महज एक काला हब्शी हूं / जिसे समुद्र से प्रेम है / मेरे पास गहरी औपनिवेशिक शिक्षा है / मेरे भीतर डच, नीग्रो और अंग्रेजी भाषाएं मौजूद हैं / या तो मैं कुछ नहीं हूं या फिर एक पूरा राष्ट्र हूं।‘

वालकोट कवि के साथ बहुत बड़े नाटककार भी हैं। उनके लिखे नाटकों में भी कविताओं की ही अभिव्यक्ति हुई है अर्थात् जो बात कविता में कही, उसे नाटक में पूरी कहानी के साथ कुछ और नाटकीय वैविध्य के साथ प्रस्तुत किया। दो दर्जन से अधिक नाटकों में उन्होंने पूरे कैरेबियाई द्वीप समूह की अंतसचेतना को बहुत गहराई से देखा-परखा है। चार सौ साल के गुलामी और औपनिवेशिक दासता वाले इतिहास की परत दर परत खोज करते हुए वे उस विराट जनसमुदाय की आवाज बन जाते हैं जो सदियों से अपमानित और प्रताडि़त होता आया है। यह वह जनसमुदाय है जिसे दक्षिण अफ्रीका और भारत से जहाजों में भरकर अंग्रेज वहां ले गए थे, जिनकी अपनी जुबान और संस्कृति उपनिवेशवाद के चलते गुम हो गई और वो एक अजीब सी मिली-जुली खिचड़ी किस्‍म की संस्कृति में रहने के लिए अभिशप्त हैं। इस जनता में वो भारतीय भी हैं जिनका वहां के सांस्कृतिक और सामाजिक ही नहीं आर्थिक और राजनैतिक रूप से भी महत्व है। भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक और नोबल पुरस्कार से सम्मानित सर वी.एस. नायपाल भी यहीं से गए थे और पॉप गायिका पार्वती खान भी यहीं की हैं।

वालकोट का सबसे प्रसिद्ध नाटक है ‘ड्रीम आन मंकी माउण्टेन’। इस नाटक में वालकोट ने कैरेबियाई संस्कृति का विहंगम परिदृश्य रचते हुए एक स्वनप्निल संसार की रचना की है जिसमें दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाता है। इस विविधतापूर्ण्‍ सांस्कृतिक परिदृश्य के बारे में और उसकी अपनी पीड़ा को लेकर वालकोट ने एक जगह लिखा है, ‘यहां हम सब अजनबी हैं...हमारे शरीर एक भाषा में विचार करते हैं और दूसरी भाषा में विचरते हैं।‘
वालकोट मानक अंग्रेजी और कैरेबियाई भाषा में समान रूप से लिखते हैं। उनकी मातृभाषा क्रेयोल है जो एक छोटे से समुदाय की भाषा है। उन्होंने अपने जुड़वां भाई की मृत्यु के बाद 2004 में अपनी आखिरी पुस्‍तक लिखी ‘द प्रोडिगाल’।

वालकोट का कहना है कि वे अपनी क्षमता का आठवां हिस्सा ही लिख सके हैं, और कैरेबिया द्वीप समूह में बोली जाने वाली तमाम टूटी-फूटी खिचड़ी भाषाओं से वे पूर्णत: परिचित हैं। डेरेक वालकोट ने विश्वसाहित्य का गहन अध्ययन किया, जिसके कारण उन्होंने अपनी रचनात्‍मकता में एक तरफ जहां यूरोपियन सर्जनात्मक मानदण्डों के अनुकूल प्रतिमानों का प्रयोग किया वहीं अपने कैरेबियाई द्वीप समूह की गहरी संवेदनशील और आत्मीयता भरी संस्कृति को जुबान दी। कलात्मकता के साथ रचनाओं में आई इस संवेदनशीलता ने वालकोट की काव्य और नाट्य कला को नया उत्कर्ष दिया, जिसे खारिज करना असंभव था। ऊपर से उनके काम की मात्रा इतनी विपुल और समृद्ध कि नोबल पुरस्कार देते वक्त उनके सृजन को ‘महासागरीय कृतित्व्’ कहा गया। इस महासागर से प्रस्तुत है एक कविता-

प्रेम के बाद प्रेम

वक्त आएगा


जब तुम प्रफुल्लता के साथ


अपने ही दरवाजे पर, अपने ही आईने में


खुद का आते हुए स्वागत करोगे


और दोनों एक दूसरे की ओर मुस्कुराते हुए मिलोगे






फिर कहोगे, बैठो, कुछ खा लो


तुम उस अज्ञात व्यक्ति से प्रेम करोगे


जो तुम खुद ही थे


शराब परोसो, रोटी परोसो


उस अजनबी को वापस अपना दिल दे दो


जिसने तुम्हें प्रेम किया है






तमाम जिंदगी जिसे तुमने


किसी और के लिए उपेक्षित रखा


जिसे तुम दिल से जानते हो


किताबों की अलमारी से प्रेमपत्र बाहर निकाल लो






वो तस्वीरें, वो निराशा भरे नोट्स


आईने से अपनी ही छवि खुरच लो


बैठो, अपनी जिंदगी की दावत उड़ाओ।






Sunday 4 October, 2009

हरीश भादाणी – एक फकीरी जीवन



वो मेरे दादाजी की उम्र के थे, लेकिन मैं उन्हें बाकी दोस्तों की तरह हमेशा भाई साहब ही कहता था। वो भी भाई ही मानते थे, बात-बात में कुछ याद आने पर कहते थे, ‘प्रेमचंद तुम्हारी भाभी कहती है..’ और वे इस तरह पीढियों का अंतराल सिरे से खत्म कर देते थे। मैंने जीवन में ऐसा एक भी वरिष्ठ साहित्यकार नहीं देखा, जो इस कदर अपने से कमउम्र लोगों के बीच सहजता से घुलमिल जाता हो। हम श्रद्धा से पांव छूते तो मना कर देते, किताब भेंट करते तो हमेशा ‘सहधर्मी शब्दकर्मी समानधर्मा मित्र’ संबोधन ही लिखते, और भावुक होने पर बच्चों की तरह रो देते। वो सदा खिलखिलाता मुस्कुराते रहने वाला शख्स पहाड़ सी जिंदगी के कितने भयानक दौरों से गुजरकर आया था, यह जानकर मन श्रद्धा से भर जाता था और एकदम आत्मीयता का कभी ना थमने वाला दौर शुरू हो जाता था।

उनके साथ बिताए ना जाने कितने यादगार पल हैं जिनकी स्मृतियां भाव विह्वल कर देती हैं। लेकिन उनके विराट व्यक्तित्व के पीछे छिपी उनकी अनथक साहित्य् साधना को याद करता हूं तो लगता है ऐसा जीवन जीने के लिए एक जीवन कम पड़ जाए। कभी उनके जीवन के उतार चढाव भरे कंटकाकीर्ण पथ को याद करता हूं तो लगता है जैसे किसी विश्वस्तरीय लेखक की जीवन कथा पढ़ रहा हूं। बचपन में पिता संन्यासी होकर इकलौते पुत्र को अकेले छोड़कर चले गए। और एक सामंती किस्म के परिवार में कई हवेलियों के बीच हरीश भादाणी जी ने अपना बचपन गुजारा। ना जाने कितनी पीड़ाएं झेली होंगी इस बालक ने जो सामंती शोषण और अत्याचार बचपन में अपनी आंखों से देखा होगा। तभी तो वो ‘रोटी नाम सत है’ जैसा शाश्वत गीत लिख सके। हिंदी में क्या आपको विश्वसाहित्य में ऐसी कविता नहीं मिलेगी, जो एक शोकसंतप्तत स्‍वर को इस प्रकार एक आंदोलनकारी जनगीत में बदल दे। ‘राम नाम सत है’ की जगह 'रोटी नाम सत है कहना', कितने बड़े कवि के कण्ठ से निकला है, इसे इस गीत को पढने, गाने और सुनने से अहसास होता है। यहां वे अपनी संपूर्ण चेतना के साथ उपस्थित हैं, जिसमें वंचितों का क्रोध, अधिकारों के लिए संघर्ष और व्यवस्था के प्रति आमजन का गहरा आक्रोश एक साथ देखा जा सकता है। इस गीत की कुछ पंक्तियां हैं, "रोटी नाम सत है, खाए से मुगत है, ऐरावत पर इंदर बैठे बांट रहे टोपियां, झोलियां फैलाए लोग, भूल रहे सोटियां, वायदों की चूसनी से छाले पड़ जीभ पर, रसोई में लाव लाव भैरवी बजत है, बोले खाली पेट की करोड़ों करोड़ कूंडियां, तिरछी टोपी वाले भोपे भरे हैं बंदूकियां, भूख के धरमराज यही तेरा व्रत है, रोटी नाम सत है कि खाए से मुगत है।" मुक्ति राम के जाप से नहीं रोटी से मिलेगी। ऐसा स्वर आपको विश्वसाहित्य में इस चेतना के साथ आपको शायद ही कहीं मिलेगा।

हरीश जी एम.एन. राय और समाजवादी विचारों से चलकर मार्क्सवाद तक आए थे। लेकिन उनके भीतर की भारतीय मनीषा उन्हें बारंबार ऋग्वेद और उपनिषदों की ओर ले जाती थी, जिससे वे मार्क्सवाद और भारतीय मनीषा का प्रत्याख्यान करते थे। ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं और उपनिषदों के अनेक सूक्तों की उन्होंने एक समाजशास्त्रीय ढंग से पुनर्रचना की है। और ऐसी रचनाओं का जब वे सस्वर पाठ करते थे तो जनमानस में ऐसा समां बंधता था कि पूछिए मत। उनके गाए गीतों पर हजारों लोग झूमते थे और उनकी अनुपस्थिति में भी हर जनांदोलन में उनके गीत गूंजते रहते हैं। उनके गीतों और कविताओं की पंक्तियां संघर्ष का नारा गईं। ‘बोल मजूरा हल्ला बोल’ जैसी पंक्ति हरीश भादाणी ही लिख सकते थे।

क्योंकि उन्होंने अपनी आंखों से जो शोषण और अत्याचार देखा था, उसके प्रति उनकी घृणा इतनी जबर्दस्त थी कि जिस सामंती परिवार में पैदा हुए, उसकी एक एक ईंट तक उन्होंने आम आदमी की भूख मिटाने और साहित्यिक पत्रकारिता के लिए ‘वातायन’ को चलाने में बेच डाली। ऐसा जीवट वाला साहित्यकार आपको किसी भी भाषा में शायद ही मिलेगा, जिसने एक नहीं तेरह हवेलियां बेचने के बाद एक छोटे से घर में रहना मंजूर किया हो। और इसके बाद खुद जनपथ पर आ गए और ‘सड़कवासी राम’ लिखने लग गए। इस नई राह पर हरीश जी ने पता नहीं कितने पापड़ बेले। बंबई और कलकत्ता के ना जाने कितने सेठों के नाम से किताबें लिखीं, बड़े बड़े फिल्मी गीतकारों के नाम से गीत लिखे। सिनेजगत में उनके नाम से बस ‘आरंभ’ फिल्म का गीत ही बचा है, ‘सभी सुख दूर से गुजरें, गुजरते ही चले जाएं’। लगता है उनका जीवन भी ऐसा ही रहा, जिसमें सारे सुख दूर से गुजरे और उनके हिस्से आई सिर्फ रचनात्मकता, जिसके माध्यम से वो जनता की आवाज यानी जनकवि बन गए।
(नई दुनिया के राजस्‍थान संस्‍करण में 4 अक्‍टूबर, 2009 को प्रकाशित)



Friday 2 October, 2009

जनकवि हरीश भादाणी नहीं रहे



हिंदी और राजस्‍थानी के सुप्रसिद्ध जनकवि हरीश भादाणी जी का आज तड़के बीकानेर में निधन हो गया। 11 जून, 1933 को जन्‍मे हरीश भादाणी जी की लोकप्रियता इतनी जबर्दस्‍त थी कि हजारों लोगों को उनके गीत कंठस्‍थ हैं और विभिन्‍न जनांदलनों में बरसों से गाये जा रहे हैं। 'बोल मजूरा हल्‍ला बोल' और 'रोटी नाम सत है' जैसे कई गीत जगप्रसिद्ध हैं। उनकी कविता की बीस से अधिक पुस्‍तकें हिंदी और राजस्‍थानी में प्रकाशित हुईं। उनके परिवार में एक पुत्र और तीन पुत्रियां हैं। उनकी बड़ी बेटी सरला माहेश्‍वरी दो बार पश्चिम बंगाल से राज्‍यसभा की सांसद रह चुकी हैं।
भादाणी जी पिछले कई महीनों से अस्‍वस्‍थ चल रहे थे। वे कैंसर से पीडि़त थे। दो दिन पूर्व ही वे कोलकाता में अपनी दोहित्री के विवाह समारोह से लौटे थे। उनकी लोकप्रियता का आलम यह है कि बीकानेर शहर में आप किसी रिक्‍शा या तांगे वाले से उनका पता पूछकर उनके घर जा सकते हैं।

इनके पिता संन्‍यासी हो गए थे। उस वक्‍त हरीश जी बहुत छोटे थे। सामंती परिवार में जन्‍मे हरीश जी ने जनता के दुख दर्द को गले लगाया और एक-एक कर सात पुश्‍तैनी हवेलियों को बेचने के बाद एक छोटे से घर में रहने लगे। साहित्‍य और समाज को पूरी तरह समर्पित इस महान कवि के गीत सदियों तक अवाम के दिलोदिमाग में गूंजते रहेंगे। हरीश जी खुद बहुत अच्‍छा गाते थे। उनके गीतों की कई कैसेट और सीडी निकली हैं। उन्‍होंने कुछ वक्‍त मुंबइया फिल्‍मी दुनिया में भी गुजारा। कई मशहूर गीतकारों ने उन्‍हें आशीर्वाद दिया और उनके लिखे गीत अपने नाम से फिल्‍मों में चला दिये। 1976 में आनंद शंकर के संगीत निर्देशन में उनका लिखा और मुकेश की आवाज में गाया गया फिल्‍म 'आरंभ' का गीत 'सभी सुख दूर से गुजरें गुजरते ही चले जाएं' लोकप्रिय हुआ। फिल्‍मी दुनिया में उनके नाम से बस यही गीत बचा है, बाकी गीत बड़े गीतकारों के नाम चले गए। यह गीत मेरे विशेष आग्रह पर भाई युनूस खान ने रेडियोवाणी पर लगाया है। आप इस गीत को यहां सुन सकते हैं। हरीश जी ने कभी उन गीतकारों के नाम नहीं बताए, बस हंसकर टाल जाते थे।
मुझे व्‍यक्तिगत रूप से उनका 'रेत है रेत' बहुत पसंद है।

इसे मत छेड़ पसर जाएगी
रेत है रेत बिफर जाएगी
कुछ नहीं प्यास का समंदर है
ज़िन्दगी पांव-पांव जाएगी
धूप उफने है इस कलेजे पर
हाथ मत डाल ये जलाएगी
इसने निगले हैं कई लस्कर
ये कई और निगल जाएगी
न छलावे दिखा तू पानी के
जमीं आकाश तोड़ लाएगी
उठी गांवों से ये ख़म खाकर
एक आंधी सी शहर जाएगी
आंख की किरकिरी नहीं है ये
झांक लो झील नज़र आएगी
सुबह भीजी है लड़के मौसम से
सींच कर सांस दिन उगाएगी
कांच अब क्या हरीश मांजे है
रोशनी रेत में नहाएगी
इसे मत छेड़ पसर जाएगी
रेत है रेत बिफर जाएगी

इसके अलावा मुझे उनका 'रेत में नहाया है मन' भी बहुत भाता है।

रेत में नहाया है मन !



आग ऊपर से, आँच नीचे से


वो धुँआए कभी, झलमलाती जगे


वो पिघलती रहे, बुदबुदाती बहे


इन तटों पर कभी धार के बीच में


डूब-डूब तिर आया है मन


रेत में नहाया है मन !


घास सपनों सी, बेल अपनों सी


साँस के सूत में सात सुर गूँथ कर


भैरवी में कभी, साध केदारा


गूंगी घाटी में, सूने धारों पर


एक आसन बिछाया है मन


रेत में नहाया है मन !




आँधियाँ काँख में, आसमाँ आँख में


धूप की पगरखी, ताँबई, अंगरखी


होठ आखर रचे, शोर जैसे मचे


देख हिरनी लजी साथ चलने सजी


इस दूर तक निभाया है मन


रेत में नहाया है मन !