Sunday 27 September, 2009

इस सादगी पे बलि बलि जाएं...




जब से दुनिया में मंदी आई है लोग सादा जीवन अपनाने की बात करने लगे हैं। लेकिन सादगी भरा जीवन कोई नई बात नहीं है, भारतीय परंपरा में ऋषि-मुनियों के जमाने से सादा जीवन उच्च विचार की बात चलती आई है। प्रत्येक मनुष्य को अपनी जिंदगी अपने अलग ढंग से जीने का हक है। हर इंसान अपनी रूचियों के कारण सादा अथवा फैशनपरस्त जीवन शैली अपनाता है। कोई चाहकर भी उच्च जीवन शैली नहीं अपना सकता तो कोई सामर्थ्य के बावजूद बेहद सादगी भरा जीवन जीता है। बहुत से ऐसे लोग भी होते हैं जो किसी महापुरूष के विचारों से प्रभावित होकर सादा जीवन अपनाने लगते हैं। कुल मिलाकर हर व्यक्ति का अपना स्टाइल स्टेटमेंट होता है, जिससे उसकी जीवनशैली बनती है। कुछ लोग वक्त के हिसाब से अपने को बदल लेते हैं और उसी के अनुरूप जीते हैं। मनुष्य का मन कभी स्थिर नहीं रहता इसलिए सामान्य तौर पर अपने परिवार, मित्र-मण्डली या किसी प्रिय के कहने पर वो खुद को बदल भी लेता है और कई बार अपनी जिद के चलते खुद को बदलने से इन्कार भी कर देता है। सादा जीवन का मतलब सिर्फ कपड़ों के चुनाव, खान-पान और यात्रा के साधनों में कमखर्ची नहीं है, बल्कि यह जीवन का एक आदर्श भी है। बहुत से लोगों को अपने पेशे की विवशताओं के कारण एक खास किस्म की जीवनशैली सार्वजनिक जीवन में अपनानी पड़ सकती है। ऐसे लोग व्‍यक्तिगत जीवन में अपने आदर्श जीवन को जीने की कोशिश करते हैं। इस तरह दोहरा जीवन जीते हैं।



सादगी के आयाम

सादा जीवन मानव जाति के लिए एक जीवन मूल्य है। इसे तेरहवीं सदी के संत थॉमस एक्विनास ने इस तरह परिभाषित किया है कि जब मनुष्य को कोई लक्ष्य एक ही साधन से प्राप्त हो सकता है तो उसके लिए बहुत से साधनों का इस्ते‍माल करना बेकार की बात है, क्योंकि कुदरत ने एक चीज प्राप्त करने के लिए एक ही साधन बनाया है। इस बात को इस तरह समझा जा सकता है कि व्यक्ति को स्वस्थ जीवन के लिए खाद्य और पेय पदार्थों की जरूरत होती है, अब इसके लिए न्यूनतम आवश्यकता देश-काल के अनुसार भिन्न -भिन्न हो सकती हैं। लेकिन सिर्फ पेट भरने के लिए हजारों खर्च कर देना कहां तक उचित है। यह फिजूलखर्ची तो है ही, बल्कि एक प्रकार से देखा जाए तो उपलब्ध संसाधनों की बर्बादी भी है। इसी तरह जब मनुष्य का काम साधारण कपड़ों के दो-चार जोड़ों से तन ढंकने से चल सकता है तो नित नए महंगे कपड़े पहनना और खरीदना बर्बादी है। एक सामान्य वाहन से अगर घर का काम चल सकता है तो परिवार के प्रत्येाक सदस्य के लिए नित नए वाहन खरीदना उचित नहीं कहा जा सकता। सादगी भरा जीवन गरीबी की नहीं सौम्यता और सहज जीवन जीने की शैली है, जिसका निहितार्थ यह है कि व्‍यक्ति इस पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधनों का अपनी आवश्यकताओं से अधिक इस्तेामाल नहीं करेगा और शेष संसाधन उन लोगों के लिए छोड़ देगा, जिनके पास जीने के लिए अनिवार्य संसाधन भी उपलब्ध नहीं हैं।

सादगी का फैशन

आजकल सादगी का फैशन भी चल पड़ा है। फैशन एक प्रकार की प्रतिस्पंर्धा ही है जिसमें एक दूसरे से बेहतर और अलग दिखने की कोशिश की जाती है। आपने बहुत से हाई प्रोफाइल लोगों को कुछ खास मौकों पर सादा सूती या खादी के कपड़ों में देखा होगा। ये लाग आम तौर पर ऐसा नहीं करते, मतलब सादगी उनके लिए फैशन है, जिससे आम लोगों की नजर में वे इस सादगी की वजह से ही खास हो जाते हैं। फैशन के इस दौर में कभी हेय समझी जाने वाली चीजें भी नए फैशन के रूप में चल पड़ी हैं। जैसे आदिवासी और जनजातीय पहनावा और आभूषण आज की हाई क्लास सोसायटी का फैशन हो गया है। ग्रामीण समाज में दैनंदिन उपयोग की चीजें सजावटी सामान की तरह ड्राइंग रूम की शोभा बन गई हैं। यह सादगी नहीं सादगी का फैशन है जो पहले चीजों से घृणा करता है और खुद अपनाकर उसे एंटीक बना देता है।

सरकार की सादगी बनाम सादगी की राजनीति

इन दिनों केंद्र से लेकर राज्य सरकारें सादगी का गुणगान कर रही हैं। यह कितनी बेतुकी बात है कि सरकार और राजनेता सादगी की बात कर रहे हैं। उन्हें तो हर वक्त ही सादगी भरा जीवन अपनाना चाहिए, क्योंकि सरकारी फिजूलखर्ची तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में कभी भी जायज नहीं ठहराई जा सकती। इन दिनों चल रही सरकारी सादगी दरअसल एक प्रकार का नाटक है, जिसमें जनता के बीच संवेदनशील सरकार का भ्रम पैदा किया जा रहा है। इस प्रकार सरकार जनता के उन सवालों को टालने की कोशिश में कामयाब हो जाती है, जिनसे उसे हालिया दौर में संघर्ष करना पड़ सकता है। मसलन बैंक-बीमा जैसे कई उद्योगों में नए वेतनमानों के मुद्दे को सरकार मंदी के नाम पर सादगी की आड़ में टाल सकती है और इससे जनता के बीच एक किस्म की लोकप्रियता हासिल कर सकती है। राजनीति में सादगी एक जबर्दस्ती लोकप्रियतावादी फैशन है, जिसमें जनता को आकर्षित करने के तमाम प्रयत्न किए जाते हैं। और राजनीति में सादगी का फैशन नया नहीं है, यह तो पंडित नेहरू के जमाने से चला आ रहा है। उस वक्त लोहिया जी ने हिसाब लगाकर बताया था कि एक दिन में नेहरू जी पर कितना खर्च होता है। आदिवासी और ग्रामीण जनता के बीच उनके जैसे कपड़े पहनना भी राजनीति का फैशन है, इससे नेताओं को खूब लोकप्रियता हासिल होती है।

सादगी का दर्शन बनाम सादगी का इतिहास

लिखित इतिहास में सादगी का पहला उदाहरण गौतम बुद्ध के काल में मिलता है। महात्मा बुद्ध ने अपने अपने अनुयायियों से अपनी आवश्यकताओं को न्यूतनतम करने के लिए कहा था। उन्होंने स्वयं अपनी जरूरतों को कम कर दिया था। बुद्ध ने अपने श्रमण में भिक्षुकों को कहा था कि भिक्षा में अगर एक दिन की आवश्यकता जितना मिल जाए तो उसके बाद भीख नहीं मांगनी चाहिए और एक भिक्षुक को निरंतर अपनी आवश्यकताएं कम करते जाना चाहिए। इसके बाद महावीर स्वामी ने भी सादगी पर जोर दिया था। बुद्ध-महावीर से लेकर महात्मा गांधी जैसे अनेक महापुरूषों ने मनुष्य को अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर सादा जीवन जीने का उपदेश दिया। गांधी जी का जीवन तो आज भी सादगी का जबर्दस्त उदाहरण है। सादगी पर उनके जैसा चिंतन और व्यावहारिक प्रयोग विश्व के लिए अमूल्य धरोहर है। आज भी हजारों-लाखों लोग उनके विचारों से सादगी भरा जीवन जीने के लिए प्रेरित होते हैं। गांधीजी तो आवश्यकता से अधिक किसी भी वस्तु की प्राप्ति या उपभोग को एक प्रकार की हिंसा ही मानते थे। उनकी मान्‍यता थी कि कुदरत प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर सकती है लेकिन लोभ-लालच को पूरा नहीं कर सकती। इस तरह से देखा जाए तो उच्च जीवन शैली एक प्रकार से लोभ और लालच की संस्‍कृति है, जो प्रकृतिविरोधी और मानवताविरोधी है।

सादगी की तकनीकी और अर्थशास्त्र

सादगी को लेकर दुनिया भर में आधुनिक तकनीकी विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री बरसों से खासकर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद चिंतन करते आए हैं और उनका निष्कर्ष है कि आधुनिक तकनीक का अगर उचित ढंग से इस्तेमाल किया जाए तो विश्व में व्याप्त बहुत सी समस्या‍एं सुलझाई जा सकती हैं। इस दृष्टि से ब्रिटिश अर्थशास्त्री ई.एफ. शुमाखर की विश्वप्रसिद्ध किताब ‘स्मा‍ल इज़ ब्यू्टीफुल’ ने दुनिया भर के सादगीपसंद लोगों का ध्यान आकर्षित किया। इस पुस्तक में वैश्वीकरण के जवाब में एक वैकल्पिक किस्म की उत्पादन और वितरण की व्यावहारिक और स्थायी व्यवस्था प्रस्तावित की गई है, जिसे अपनाकर सभी राष्ट्र अपने उपलब्ध संसाधनों का बेहतर प्रबंधन करते हुए विकास कर सकते हैं। यह पुस्तक हिंदी में भी प्रकाशित हो चुकी है। इसी प्रकार ग्लोबल वार्मिंग के बढते खतरे को लेकर दुनिया के हजारों तकनीकी विशेषज्ञों ने सादगी भरे वैकल्पिक संसाधनों और तकनीक की वकालत की है, जिसके अनुसार इंटरनेट जैसे संचार साधनों का अधिकाधिक इस्तेमाल कर संवाद को सहज सुगम और तीव्र ही नहीं बल्कि पर्यावरण हितैषी भी बनाया जा सकता है। इससे कागज का इस्तेामाल कम होगा और हजारों-लाखों पेड़ बचाए जा सकेंगे। ‘फूड माइल्स‘ नामक एक आंदोलन के अनुसार खेत से थाली तक खाद्यान्न को जितनी दूरी तय करनी पड़ती है, उसे स्थानीय उत्पादन से कम करके करोड़ों बैरल पेट्रोलियम उत्पाद बचाए जा सकते हैं। स्वैच्छिक सादगी के प्रवक्ता कहते हैं कि विज्ञापन के माध्यम से उपभोक्ता‍वाद का प्रचार-प्रसार बिल्कुल गलत है। वे तो टेलीविजन के बजाय सामुदायिक टीवी और रेडियो की बात करते हैं।

आजकल लोगों के पास समय की कमी रहती है, इसलिए सादगी भरे जीवन का मतलब यह नहीं कि समय की बर्बादी की जाए। महान पत्रकार स्व. राजेंद्र माथुर बेहद सादगीपसंद थे। वे समय बचाने के लिए हवाई जहाज से यात्रा करते थे किंतु अपने खादी के झोले में महज एक जोड़ी कपड़े और किताब रखते थे। सादगी का असल मतलब यह है कि सामान्य सहज रूप से जिंदगी की गाड़ी चलती रहे और अपने किसी भी किस्म के आचरण से समुदाय और प्रकृति को कोई नुकसान नहीं पहुंचे।


Sunday 20 September, 2009

एक महाद्वीप को साहित्‍य में सिर्फ एक नोबल पुरस्‍कार


नोबल पुरस्‍कार के इतिहास में संभवत: यह एक मात्र उदाहरण है जिसमें एक महाद्वीप को एक ही बार पुरस्‍कार मिला। यह अद्भुत संयोग हुआ ऑस्‍ट्रेलिया के साथ। यूं ऑस्‍ट्रेलियाई साहित्‍य अंग्रेजी में होने के कारण पूरी दुनिया में पढा और सराहा जाता है किंतु 1973 में जब पैट्रिक व्‍हाइट को नोबल पुरस्‍कार मिला तब दुनिया का ध्‍यान इस विशाल महाद्वीप के साहित्‍य की ओर गया। पैट्रिक व्‍हाइट को महाकाव्‍यात्‍मक और मनोवैज्ञानिक विवरणों के अद्भुत उपन्‍यासकार के रूप में जाना जाता है। 28 मई, 1912 को लंदन में व्‍हाइट का जन्‍म हुआ और जब वो छह महीने के थे, पिता परिवार सहित ऑस्‍ट्रेलिया चले आए। व्‍हाइट का बचपन पिता की इस सनक और समझ के चलते बहुत मुश्किलों में बीता कि इस लड़के को लेखक या कलाकार के बजाय किसान बनना चाहिए। बचपन से ही अस्‍थमा के रोगी बालक को दस बरस की उम्र में पढने के लिए एक बोर्डिंग स्‍कूल में भेज दिया गया। उस स्‍कूल के बंद होने की नौबत आई तो प्रधानाध्‍यापक की सलाह पर व्‍हाइट को इंग्‍लैंड भेज दिया गया। अपने रोग के कारण व्‍हाइट ने बचपन से ही एकाकी स्‍वभाव अपना लिया और स्‍कूल में भी अपनी काल्‍पनिक दुनिया में मगन रहने लगे।
इंग्‍लैंड में व्‍हाइट ने एक छोटी सी मित्र मण्‍डली बना ली थी, जिसमें वो अक्‍सर थियेटर जाते और घूमने निकल पड़ते। छुट्टियों में माता-पिता के साथ वो यूरोप और अमेरिका घूमने जाते। लेकिन परिवार से पैट्रिक की भावनात्‍मक दूरी वैसी ही बनी रही। अपने चार साल के इंग्‍लैंड प्रवास को पैट्रिक व्‍हाइट ‘कैद’ कहते थे। व्‍हाइट अभिनेता बनना चाहते थे और जब उन्‍होंने माता-पिता को अपनी इच्‍छा बताई तो उन्‍होंने पहले ऑस्‍ट्रलिया आने के लिए कहा।
लौटने पर पिता ने बजाय कलाकार बनाने के व्‍हाइट को एक जानवरों के एक फार्महाउस पर पशुपालक का काम करने भेज दिया, जहां उसका मन काम से अधिक लिखने और अपनी कल्‍पना की दुनिया में ज्‍यादा लगता था। यहां आकर स्‍वास्‍थ्‍य खुली आबोहवा में सुधरने लगा तो अपने बंद कमरे में व्‍हाइट ने कई कहानियां, उपन्‍यास, नाटक और कविताएं लिख डालीं। व्‍हाइट ने छद्म नाम से एक कविता बड़े अखबार में भेजी जो प्रकाशित भी हुई।
1932 में व्‍हाइट फिर से इंग्‍लैंड चले गए, जहां केंब्रिज चार साल तक फ्रेंच और जर्मन साहित्‍य का अध्‍ययन किया। इस बार व्‍हाइट ने लंदन में अपने लिखे नाटकों के मंचन करवाने और रचनाएं प्रकाशित करवाने की कोशिशें कीं। कुछ कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं, लेकिन नाटक को लेकर व्‍हाइट को इंतजार करना पड़ा। इन्‍हीं दिनों पहला काव्‍य संग्रह ‘द प्‍लौमैन एण्‍ड अदर पोएम्‍स‘ प्रकाशित हुआ और एक नाटक शौकिया कलाकारों के समूह ने मंचित किया। प्रकाशन से जो उत्‍साह मिला उसके चलते व्‍हाइट ने लगातार लिखना जारी रखा और पुराने उपन्‍यास ‘हैप्‍पी वैली’ को फिर से लिखा। इस उपन्‍यास में पशुपालक के तौर पर देखे गए जीवनानुभवों को उन्‍होंने बहुत खूबसूरती से चित्रित किया। यह उपन्‍यास प्रकाशित हुआ तो इंग्‍लैंड के समीक्षकों ने सराहा, लेकिन ऑस्‍ट्रेलिया में किसी ने इस पर ध्‍यान नहीं दिया। 1937 में पिता की मृत्‍यु हो गई और वे पुत्र के लिए अच्‍छी खासी रकम छोड़कर गए, जिससे वो पूरी तरह लेखन के लिए समर्पित हो सकते थे।
द्वितीय विश्‍व युद्ध के बाद कुछ वक्‍त वो अमेरिका रहे और वापस लौटकर ऑस्‍ट्रेलिया आ गए, जहां सिडनी के पास एक कस्‍बे में रहने लगे। यहां आने के बाद उन्‍होंने अपना पहला महत्‍वपूर्ण उपन्‍यास लिखा ‘द आन्‍ट्स स्‍टोरी’। इस उपन्‍यास में व्‍हाइट ने एक अविवाहित ऑस्‍ट्रेलियाई महिला का संघर्षमय जीवन दिखाया जो ऑस्‍ट्रेलिया और ब्रिटेन की दो संस्‍कृतियों के द्वंद्व में फंसी है। वह अपनी मां की मृत्‍यु के बाद यूरोप और अमेरिका की यात्रा पर जाती है और अकेलेपन के चलते मानसिक रूप से विक्षिप्‍तता की हद तक पहुंच जाती है। उसके एकाकीपन को व्‍हाइट ने बहुत संवेदनशील तरीके से पाठकों तक पहुंचाया। यह व्‍हाइट का प्रिय उपन्‍यास भी रहा। आलोचकों ने प्रारंभ में इसे नहीं सराहा, लेकिन पुनर्प्रकाशन के बाद इसे जबर्दस्‍त लोकप्रियता हासिल हुई। 1955 में व्‍हाइट ने अपने जीवन का सबसे महत्‍वपूर्ण उपन्‍यास लिखा ‘द ट्री ऑफ मैन’। इसके बारे में खुद व्‍हाइट ने लिखा कि सिडनी के पास रहने के दौरान शहरी-कस्‍बाई उबाउ जिंदगी के भीतर से मुझे किसी कविता का संगीत सुनाई दिया और उपन्‍यास का जन्‍म हुआ। इस उपन्‍यास में व्‍हाइट ने पार्कर परिवार की नाटकीय जिंदगी का वर्णन किया है जिसमें ऑस्‍ट्रेलिया के लोकसंगीत, लोक परंपराओं और मिथकों को कहानी में बहुत खूबसूरती के साथ पिरोया गया है। इस उपन्‍यास को भी पहले खारिज कर दिया गया और बाद में इसका महत्‍व स्‍वीकारा गया।
ऑस्‍ट्रेलिया में उनके जिस उपन्‍यास को सबसे ज्‍यादा पसंद किया गया वो था ‘वॉस’, जो 1957 में प्रकाशित हुआ। इस उपन्‍यास के प्रारंभ में 1845 में एक सनकी जर्मन खोजकर्ता वॉस यहां की एक अनाथ लड़की लॉरा से मिलता है और दोनों में प्रेम हो जाता है। वॉस पूरे महाद्वीप को पैदल पार कर अंतहीन विस्‍मयों से साक्षात करना चाहता है। उपन्‍यास में वॉस की ऑस्‍ट्रेलिया महाद्वीप की यात्रा का रोमांचक वर्णन है। दो दलों में बंटकर यह खोजी अभियान दल करीब बीस साल तक ऑस्‍ट्रेलिया के सुदूर इलाकों की यात्रा करता है और एक-एक कर सब लोग मारे जाते हैं। वॉस और लॉरा दैवीय शक्तियों से एक दूसरे से संवाद करते रहते हैं और कहानी में दोनों पात्रों का जीवन क्रम चलता रहता है। आदम और हव्‍वा की कहानी को व्‍हाइट ने कई स्‍तरों पर रचते हुए एक अद्भुत उपन्‍यास की रचना की है। इस उपन्‍यास को पहला माइल्‍स फ्रेंकलिन लिटरेरी अवार्ड दिया गया। 1961 में व्‍हाइट का एक और महत्‍वपूर्ण उपन्‍यास आया ‘राइडर्स इन द चेरियट’। इसमें व्‍हाइट ने 1950 के दशक में एक काल्‍पनिक ऑस्‍ट्रेलियाई कस्‍बे सरसापारिल्‍ला के रहन-सहन का चार लोगों के माध्‍यम से वर्णन किया है। रहस्‍यवाद, आध्‍यात्मिकता और कस्‍बाई सांस्‍कृतिक जीवन का यह शानदार मिश्रण है।
1970 में व्‍हाइट का आठवां उपन्‍यास प्रकाशित हुआ ‘द विविसेक्‍टर’। इसमें एक काल्‍पनिक चित्रकार की जिंदगी की यादों का खजाना है। कैसे एक गरीब परिवार में पैदा हुआ बालक महलों में जा पहुंचता है और जिंदगी भर कला में सत्‍य की खोज करता हुआ ईश्‍वर के लिए अपनी नायाब कृति रचता है। 1973 में पैट्रिक व्‍हाइट की एक और कृति आई ‘द आई ऑफ द स्‍टॉर्म’। इस उपन्‍यास के बाद व्‍हाइट को नोबल पुरस्‍कार प्रदान किया गया। अपनी एकांतप्रियता की वजह से व्‍हाइट नहीं गए और अपने मित्र को पुरस्‍कार ग्रहण करने के लिए भेजा। समारोह में इस उपन्‍यास की चर्चा करते हुए कहा गया कि व्‍हाइट थोड़े मुश्किल लेखक हैं । यह बात सही भी है तो सिर्फ इसलिए ही नहीं कि वे एक अलग तरह की जटिल और सांकेतिक महाकाव्‍यात्‍मक भाषा का प्रयोग करते हैं, बल्कि इसलिए भी कि उनके विचार और उनके उपन्‍यासों में प्रस्‍तुत समस्‍याएं भी बिल्‍कुल अलग किस्‍म की हैं, जिन पर एकबारगी लोगों का ध्‍यान नहीं जाता। पैट्रिक व्‍हाइट ने ज्‍यादा नहीं कुल एक दर्जन उपन्‍यास लिखे, लेकिन उनकी कल्‍पनाशीलता इन दर्जन भर उपन्‍यासों में आश्‍चर्यचकित कर देती है। नोबल पुरस्‍कार मिलने के बाद उन्‍होंने तीन उपन्‍यास और लिखे। ‘ए फ्रिंज ऑफ लीव्‍ज़’ में एक महिला के दुख भरे दुर्दिनों की कथा है, जो जहाज डूबने से आदिवासियों के बीच पहुंच जाती है। ‘द ट्वायबॉर्न अफेयर’ में ऑस्‍ट्रेलिया, फ्रांस और ब्रिटेन में प्रथम विश्‍व युद्ध से दूसरे विश्‍व युद्ध तक अपनी अस्मिता और पहचान तलाशते व्‍यक्ति की दास्‍तान बयां होती है। ‘मेमोयर्स ऑफ मैनी इन वन’ की पाण्‍डुपलपि व्‍हाइट ने दक्षिणी ऑस्‍ट्रेलिया में साक्षरता के प्रसार के लिए दान कर दी थी, जिसे बाद में प्रकाशित किया गया।
अपने विशाल घर के एकांतवास में व्‍हाइट ने कविता-कहानियों के दो-दो संग्रह और सात नाटक भी लिखे। उनकी आत्‍मकथा ‘फ्लाज़ इन द ग्‍लास’ 1986 में प्रकाशित हुई। पैट्रिक व्‍हाइट के लेखन का मूल केंद्र है अस्मिता की तलाश। ब्रिटेन में पैदा होकर ऑस्‍ट्रेलियाई होने का द्वंद्व उनकी रचनाओं में निरंतर झलकता है। द्वितीय विश्‍व युद्ध में उन्‍हें जबर्दस्‍ती कई देशों में भेजा गया और इस दौरान उन्‍होंने युद्ध की निरर्थकता को निकट से देखा-भोगा। जीवन में जहां कहीं वो गए उसे किसी ना किसी प्रकार से अपनी रचना में इस्‍तेमाल किया।
लेखक की निजता के वे जबर्दस्‍त पक्षधर थे और आम लोगों या पाठकों-आलोचकों से मिलना उन्‍हें बिल्‍कुल पसंद नहीं था। आलोचकों से वे चिढते थे और उन्‍हें अपनी पाण्‍डुलिपि दिखाना भी पसंद नहीं करते थे। बाद के वर्षों में वे बहुत मुखर हो गए थे और ऑस्‍ट्रेलियाई मूल निवासियों के अधिकारों, पर्यावरण संरक्षण, परमाणु निशस्‍त्रीकरण, समलैंगिकों के अधिकारों आदि विविध विषयों पर खुलकर बोलने लगे थे। एक बार उन्‍हें सुनने के लिए तीस हजार लोग इकट्ठा हुए थे। लेकिन एकांत उन्‍हें इतना पसंद था कि लंबी बीमारी के बाद जब 30 सितंबर, 1990 को उनका निधन हुआ तो इसकी खबर भी लोगों को उनके अंतिम संस्‍कार के बाद मिली।
मूलभूत तथ्‍य

जन्‍म 28 मई, 1912
सम्‍मान पुरस्‍कार
दो बार माइल्‍स फ्रेंकलिन अवार्ड
ऑस्‍ट्रेलियन ऑफ द ईयर अवार्ड
नोबल पुरस्‍कार
प्रमुख उपन्‍यास
हैप्‍पी वैली, द आन्‍ट्स स्‍टोरी, द ट्री ऑफ मैन, वॉस, राइडर्स इन द चेरियट, द विविसेक्‍टर, द आई ऑफ द स्‍टॉर्म, द ट्वायबॉर्न अफेयर और फ्लाज़ इन द ग्‍लास।
निधन - 30 सितंबर, 1990

Sunday 13 September, 2009

नंद भारद्वाज की कहानी ‘उलझन में अकेले’


राजस्थान के साहित्य को जिन रचनाकारों ने पिछले पचास बरसों में सबसे ज्यादा समृद्ध किया है उनमें नंद भारद्वाज का नाम बेहद आदर के साथ लिया जाता है। अत्यंत संघर्षपूर्ण जीवन परिस्थितियों से गुजर कर नंद भारद्वाज ने अखिल भारतीय स्तर पर एक महत्वपूर्ण मुकाम हासिल किया है। कविता, कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता और मीडिया जैसे विविध अनुशासनों में रचनाकर्म करने वाले नंद भारद्वाज के यहां आम आदमी का संघर्ष और उसके भविष्य को लेकर गहरी चिंताएं देखने को मिलती हैं। उनके समूचे रचनाकर्म में एक गहरी प्रतिबद्धता और ऐसी रचनात्मकता दिखाई देती है, जिससे उनके बहुआयामी रचनाकार के विविध आयाम परिलक्षित होते हैं। उनके चर्चित कविता संग्रह ‘हरी दूब का सपना’ पर 2008 का के.के. बिडला फाउण्‍डेशन द्वारा दिया जाने वाला प्रतिष्ठित बिहारी पुरस्कार पिछले दिनों राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने प्रदान किया जाएगा। इस अवसर पर प्रस्तुत है उनकी एक अत्यंत चर्चित कहानी ‘उलझन में अकेले’ । इस कहानी से नंद भारद्वाज की गहरी संवेदनशीलता और रचनात्मकता के कई पक्ष उजागर होते हैं।


रात काफी गहरा गई थी और बाहर बढ़ती सर्दी के तेवर उत्तरोत्तर तीखे होते जा रहे थे। तिबारी (बैठक) के बीचो-बीच जलते अलाव से निकलती अग्नि की अशान्त ज्वालाएं फिर मंदी पड़ गई थीं। थोड़ी देर पहले जिन लकड़ियों को अंगारों पर रखा गया था, वे जलकर खुद अंगारे बन गई थीं और अंगारे फिर नई लकड़ियों की आहुति मांग रहे थे। कुछ ठूंठ के टुकड़े अभी तक जल रहे थे और कुछ अधजले धुंआ उगलते-से आग में अपना अस्तित्व विलीन करने को तैयार हो रहे थे। मैंने कुछ पतळी लकड़ियों को अंगारों पर रखकर दो-एक लंबी फूंकें दी - फूंक के उत्ताप में सनसनाती हुई आग फिर से सचेतन हो गई। उस सचेतन आग की सलोनी ज्वालाओं से अपने ठंडे पड़ते हाथों को गर्म करते और धीमी पड़ती मुस्कान को गरमास के नजदीक रखते मुझे मंद होती ज्वालाएं कुछ फीकी पड़ती-सी लगी। एक सूखा ठूंठ मैंने उन धीमी पड़ती लपटों पर धीरे-से और रख दिया। अंगारों और लपटों के लगातार उकसावे में अलाव के चारों ओर एक बार फिर गरमास-सा व्याप्त हो गया था और मन में कहीं इस बात की तसल्ली भी हुई कि इस गरमास का कुछ असर जीसा (पिता) तक अवश्‍य पहुंच रहा होगा, जो अभी तक मेरे सामने अलाव के उस पार आंगन पर बिछी दरी पर अबोले बैठे थे।

मैं तय नहीं कर पा रहा था कि जीसा से कैसे बात शुरू की जाए, क्योंकि बात जो करनी थी वह तो शायद पहले ही उन तक पहुंच चुकी थी और जो कुछ कहना था उन्हीं को कहना था, मुझे तो फकत् इतना ही बताना था कि मेरे सामने फिलहाल दूसरा कोई रास्ता खुला नहीं है। यह एक अच्छा अवसर हाथ आया है और मैं अपनी भटकती किस्मत को एक बार इस जमींन पर टिकाना चाहता हूं, लेकिन वे समझने को तैयार हों तब न!

मन में कई तरह की शंकाएं उठ रही थी कि शायद जीसा मुझे लेकर बहुत तनाव में हों और छूटते ही उलाहनों से मुझे अबोला कर दें या नाराजगी दिखाते हुए यह उलाहना भी दे सकते हैं कि ‘जब मां-बाप की दी हुई कोई सीख-सलाह सुहाती ही न हो तो अकारथ पूछताछ की रीत क्यों रखनी... मन-मरजी की ही करनी हो तो करो फिर... पूछना किस बात का...मां-बाप कहां-किसे बाधा देने आते हैं... लेकिन वे कुछ बोलें तब न, एक स्थिर दीठ जलते ठूंठ पर टिकाए वे फकत् बैठे थे...गहरे सोच में डूबे...अबोले!
ठूंठ अब पूरी तरह आग की लपटों में घिर गया था और उसके चारों ओर से लपटें निकल रही थी। आग के पीले उजास में जीसा के चेहरे की ओर देखकर साफ लग रहा था कि वे नाराज होने की बजाय कुछ उदास हैं, और उनका चेहरा भावहीन-सा हो गया है।

भाभू (मां) बता रही थी, ‘पिछले डेढ़ महीने से तुम्हारे जीसा काफी बीमार रहे हैं। यों आठ-पहर खाट तो कभी नहीं पकड़ी, लेकिन बुखार, खांसी और दमे के कारण जीव में आराम कम ही रहता है। हमने तो कितनी ही झाड़-फूंक करवा ली, दवाई-फाकी भी देकर देख ली, लेकिन जीव में आराम तो कभी आता ही नहीं। कोई दुख-दर्द की बात पूछ लें तो बताते और नहीं। रोटी जीमने के नाम पर तो फकत् टंक टालते हैं, मुश्किल से एकाध रोटी या थोड़ा-बहुत खीच-दलिया ले लेते हैं। चिकनाई के लिए वैद्यजी ने यों भी मनाही करवा रखी है। अफीम, चाय और तंबाखू की मात्रा जरूर बढ़ गई है, जो एक बारगी तो कौन जाने सीधा होने में मदद करते होंगे, लेकिन आखिर तो ये चीजें हानि ही पहुंचाती है। कोई आया-गया भी आजकल कम ही सुहाता है। आधी रात तक अलाव के पास अकेले गुमसुम बैठे रहते हैं, कोई बतला ले तो बहुत कम बोलते हैं। बरजने-डांटने का स्वभाव तो जाने कहां चला गया।‘
‘‘आपने कभी इस बारे में कुछ पूछा नहीं। मैंने भाभू से पूछा।
कहने लगी, बताते कहां है, ज्यादा जोर देते हैं, तो खारी दीठ से सामने देखते रहते हैं, या फिर बोलेंगे तो फकत् इत्ती-सी बात कि ‘तुम्हें क्या करना है - दूसरा कोई काम नहीं है घर में और हमें चुप रह जाना पड़ता है।

क्या कारण हो सकता है, मैं दिन भर इसी बात पर सोच-विचार करता रहा। दिन में तिबारी एकदम सूनी पड़ी थी। जीसा घर में कहीं नहीं थे, शायद अपनी अफीम की खुराक के लिए किसी ठेकेदार की ओर गये होंगे! पूछने पर, भाभू ने यही बताया था।
‘‘तो किसी को साथ ले जाते, या किसी को भेजकर मंगवा लेते! तबियत ठीक न हो तो यों अकेले भेजना तो ठीक बात नहीं है ना।
‘‘किसी को बताएं तब न! यह तो मुकने रबारी ने थोड़ी देर पहले खबर दी थी कि आज बाबोसा सवेरे ही मूंडसर के रास्ते जा रहे थे। मूंडसर में जगमाल और दो-एक जने अफीम का धंधा करते हैं। यों हरेक पर विश्वास भी तो नहीं किया जा सकता। लोग बताते हैं कि आजकाल अफीम पर सरकार की ओर से एकदम पाबंदी हो रखी है। मैंने तो तेरे जीसा को बहुत समझाया कि एक बार हिम्मत करके इससे जान छुड़ाओ न! बिना बात इत्ती-सी किरची के लिये ना-कुछ लोगां की गरज़ें करनी पड़ती हैं। भाभू ने अपनी चिन्ता प्रकट कर दी।

‘‘यह व्यसन ऐसा ही होता है, भाभू! और वह इस अवस्था में छूटना तो और भी मुकिल है। एकबार शुरू हो जाने के बाद तो अच्छे-भले जवानों का धैर्य जवाब दे जाता है, इन्होंने तो सत्तर पार कर लिये हैं! मेरे साथ पढ़ने वाले कई लड़के-लड़कियों में मैंने यह ऐब देखा है, लेकिन जीसा की बात दूसरी है। वे इतने बरसों से सेवन करने के बाद भी इसके वश में नहीं हैं।

‘‘अरे बेटा, ये तो मुंह के ही नहीं लगाते थे। ये तो शिवदान के बिखे में टूट गये! इतने जोध-जवान बेटे का यों अकस्मात् उठ जाना, क्या कोई सही जा सकने वाली बात है..औलाद बूढ़े मां-बाप के जीने का आधार-सहारा होती है.... और जब यह सहारा ही हाथ से छिन जाए...तो जीना बोझ हो जाता है... यह बात कहते हुए भाभू का गला भर आया और आंखों से टलक-टलक आंसुओं की धारा-सी छूट गई।
शिवदानसिंह मेरे बड़े भाई थे। वे बी.एस.एफ. में सूबेदार-मेजर थे। तीन बरस पहले पड़ौसी मुल्क से झगड़ा हुआ तब वे अखनूर के हल्के में कहीं मोर्चे पर थे। उनकी टुकड़ी ने मोर्चा जीत भी लिया था, पर कौन जाने ईश्वर की क्या मर्जी थी, जब गोली-बारी एकदम बंद हो गई, तब वे बंकर से बाहर फकत् यह देखने आए थे कि कोई दुश्मन नजदीक-दूर तो नहीं है, और उसी वक्त किसी घायल दुश्मन ने तक कर ऐसा निशाना साधा कि उसकी गोली शिवदान की छाती को आर-पार बींध गई। फिर तो उसके साथियों ने उस अधमरे दुश्मन को गोलियों से छलनी कर दिया, लेकिन उससे शिवदान तो वापस सीधे नहीं हो पाए। दो दिन बाद काठ में बंधी उनकी मिट्टी ही घरवालों के पास पहुंची और तब से जीसा तो जैसे जीते-जी मरे-समान हो गये। उनके सीने में ऐसी बूज आई कि गले से चीख भी नहीं निकल पाई। भाभू और भाभीसा तो बेहाल थे ही, उन्हें संभालने में हम सभी का जैसे धैर्य ही जवाब दे गया था। भाभी को तो तीन दिन बाद जाते होश आया, लेकिन एक बार होश आने के बाद उन्होंने जल्दी ही अपने को संभाल लिया और खुद को इस असह्य वेदना का मुकाबला करने के लिए तैयार भी कर लिया। धन्य है उनकी हिम्मत को! उन्होंने अपनी चिन्ता छोड़, मुझे बुलाकर यह हिदायत दी कि नरपत बना, आप मेरी चिन्ता छोड़ें, आप जीसा का ध्यान रक्खें, उनका आपके भाई पर बहुत जीव था! वे अपनी तकलीफ किसी को नहीं बताएंगे! उस दिन से मेरी नज़र में भाभी की इज्जत बहुत बढ़ गई थी।
.......
जीसा ने अपनी इकहत्तर वर्षों की उम्र में कठिन समय देखा है। खुद बदलते जमाने और दुनियादारी की अच्छी सूझ-समझ रखते हैं। हो सकता है कि उनका वक्त थोड़ा दूसरा रहा हो, लेकिन फकत् चारणों के घर में जन्म लेने मात्र से उन्हें अपने हलके या समाज में ज्यादा मान-सम्मान या सुविधा मिल गई हो, उस बात की तो उन्होंने कभी आस भी नहीं रखी। लोकहित और न्याय की बात करनेवाले एक नेक इंसान के रूप में सींथळ और आस-पास के गांवों में पाबूदानसिंह का नाम किसी से अजाना नहीं था। अपने जमाने की पौशाल में कुछ पढ़ाई भी कर रखी थी। घर में कथा-भागवत, माताजी की चिरजें, तुलसीदासजी की रामायण और कितनी ही पौराणिक गाथाएं उन्हें कंठस्थ थीं। लोग उनसे सुनने के लिए नजदीक-दूर के कई गांवों से आते थे।
उनके पुरखों ने न कभी किसी दरबार में हाजरी भरी और न किसी की जागीरी में कोई ओहदा ही संभाला। उल्टे जागीरी जुल्म के विरोध में अपने भाई-संबंधियों से लड़ते ही रहे। मेरे दादाजी कभी गंगा रिसाले में अपनी टुकड़ी के मुखिया हुआ करते थे, उन्हीं के नाम आई यह सौ बीघा जमीन है, जो पिछले वर्षों में परिवार की जीवारी का आधार रही है।

हाथ के काम के लेखे तो मेरी भाभू भी कम नहीं थीं। वे तो जीसा से भी दो कदम आगे रहतीं। घर में चार-चार दूध देनेवाली गायें थीं। उन गाय-बछड़ों और ढोर-डांगरों की पूरी सार-संभाळ उनके ही जिम्मे रहती थी। फकत् एक गोरधन राईका और उसकी घरवाली उनके घर-बाहर के काम में थोड़ा हाथ बंटा देते, जो गरीब थे और उनकी ही शरण-सहारे से अपना पेट पालते थे, लेकिन यह धीणा और धान किस तरह अंवेरना है, यह देखने का काम तो भाभू का ही होता था। आगे चलकर भाभी ने भी कुछ अपना आपा और मन मिला दिया था। इस बार भाभू से बात करते हुए मुझे इस बात का अचंभा हुआ कि उन्होंने एक बार भी किसी बात में भाभी का जिक्र नहीं किया। यह बात मुझे पूछने पर ही पता लगी कि वे अपने पीहर जयपुर गई हुई हैं, उन्हें सरकार की तरफ से शहीद की विधवा के नाम पर कोई बडी इमदाद मिलने वाली है।

फौज में एक सिपाही या हवलदार की कितनी-सी वक़त होती है, यह बात खुद घर के बड़े बेटे शिवदान ने अपनी उन्नीस बरस की नौकरी में अच्छी तरह से समझ ली थी। बारहवीं पास करने के बाद वे बी.एस.एफ. में एक हवलदार के रूप में भरती हुए थे और इतने बरसों में फकत् सूबेदार-मेजर के ओहदे तक पहुंच पाए थे। जो तो उन्होंने नौकरी में रहते हुए प्राइवेट बी.ए. भी कर ली थी। खुद भाभी भी दसवीं पास थी, लेकिन भाई की हिदायत के कारण घर के किसी काम में पीछे नहीं रहतीं। वे कहतीं, अपने घर और खेत में काम करते किस बात की शर्म या शंका! उनकी दो बेटियां हैं और दोनों अच्छी पढ़ाई कर रही हैं। बड़ी बेटी सुगन को शिवदान ने खुद वनस्थली ले जाकर भर्ती करवा दिया था। सुगन ने पिछले साल सीनियर सेंकेण्ड्री की मेरिट लिस्ट में अपनी जगह बनाई और फिर पी.एम.टी की परीक्षा पास कर मेडिकल में दाखिला लेने में कामयाब रही। उससे छोटी मेघा भी कम नहीं है।
शिवदान का बारहवां बीतने के बाद भाभी के पिता और भाइयों ने बहुत निहौरे किये कि वे उनके साथ पीहर में रहें और दोनों बेटियों को शहर में रखकर पढ़ाएं, लेकिन उस वक्त तो भाभी ने साफ मनाही कर दी थी। कहा,‘’बाबोसा, यह मेरा अपना घर है और ये सास-ससुर ही अब मेरे मां-बाप हैं, मैं इन्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी।‘ जीसा को जब इस बात का पता लगा तो उन्हें अपनी इस बहू-बेटी पर बहुत गर्व हुआ और पहली बार उनकी आंखों में आंसू की दो बूंदें दिखाई दीं।

असल में शिवदान पर जीसा की बढ़ती उम्मीदों की एक बड़ी वजह खुद शिवदान की अपनी नयी सोच और घर को उस पुराने ढर्रे से बाहर निकाल लाने की उनकी जिजीविषा थी। गांव में बिजली आते ही उन्होंने सबसे पहले कोशिश करके घर में बिजली लगवाई। खेत की जमीन के नीचे गहराई में अथाह पानी था, उन्होंने सरकार और बैंक से मदद लेकर गांव में सबसे पहले अपने खेत में ट्यूब-वैल खुदवाया और खेती के लिए नये साधन-तरीके अपनाए। उन्हें छुट्टी भले ही कम मिलती हो, लेकिन दूर बैठे ही वे घर की व्यवस्था सुधारने में पूरी रुचि लेते थे। नये साधनों और तकनीक के कारण खेती की उपज भी चौगुनी हो गई। खुद शिवदान नौकरी से रिटायरमेंट लेकर घर की व्यवस्था संभालने के लिए आने के बारे में सोच रहे थे और इसी की खातिर उन्होंने अपने परिवार को गांव में ही बनाए रखा। खुद भाभी ने भी अपने पति की इस योजना को खूब बढ़ावा दिया और उनकी गैर-मौजूदगी में वे सारी जिम्मेदारियां निभाने को तैयार रहतीं, जो इस बदलाव के लिए जरूरी थीं।

घर की माली हालत में रातों-रात तब्दीली आ गई। खुद मुझे भी बड़े शहर में रहकर अपनी सी.ए. की पढ़ाई करते हुए कभी तंगी महसूस नहीं हुई। वे कोई मैनेजमेंट का कोर्स किये हुए आदमी नहीं थे, लेकिन उनकी व्यावहारिक बुद्धि अच्छे-अच्छे मैनेजमेंट किये हुओं को पीछे छोड़ देती। खुद मेरी पढ़ाई के खर्चे पर भी उनकी पूरी नज़र रहती। उन्हें भरम में रखकर कोई फिजूल-खर्ची कर लेना असंभव था। उनकी इच्छा थी कि मैं किसी बड़ी कंपनी में चार्टेड अकाउण्टेंट बनूं। इस मामले में जीसा की राय शुरू से ही अलग थी। वे कहते थे कि मैं भले सी.ए. करूं या एम.बी.ए., कोई सरकारी या प्राइवेट नौकरी की तजवीज करने की बजाय यदि अपनी खेती या घर के धंधे में रुचि लूं तो वह किसी भी नौकरी से ज्यादा फायदेमंद हो सकता है। लेकिन मुझे भाई की राय ही ठीक लगती थी।
पिछले दो वर्षों में मैंने खूब मेहनत की थी और यह शायद उसी का नतीजा था कि एक भी साल बेकार गंवाए बिना मैंने सी.ए. की डिग्री समय पर हासिल कर ली। पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद कई जगह आवेदन-पत्र भिजवाये। कुछ बाहरी कंपनियों और बड़े बैंकों की मांग के अनुसार अपना बायोडेटा भेजकर इंतजार करता रहा कि कहीं से कोई बुलावा आयेगा। पहली कोशिश तो यही थी कि अपने ही आस-पास के किसी शहर में मन-रुचि का काम मिल जाए, तो घर से ज्यादा दूर जाने की नौबत न आए।
सी.ए. करने के बाद जब तक दूसरे काम की व्यवस्था नहीं हो गई, मैं बीकानेर की उसी कंपनी में बराबर काम करता रहा, जिसमें काम करते हुए मैंने अपनी शिक्षा पूरी की थी। यों कंपनी की साख अच्छी थी और देश के दूसरे शहरों में भी इसकी अपनी शाखाएं थी। उसके मालिक तो यहीं के निवासी थे, लेकिन कंपनी का हैड आफिस उन्होंने मुंबई में ही बना रक्खा था, जहां मैं पहले भी कई बार जा चुका था। मैं कंपनी के नये प्रोजेक्ट पर काम कर ही रहा था, तभी एक दिन मुझे मुंबई से इंटरव्यू के लिए बुलावा आ गया। कंपनी से तीन-चार दिन का अवकाश लेकर मैं मुंबई निकल गया।


इंटरव्यू अच्छा ही हुआ था, लेकिन मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं था। पांचवें दिन मैं वापस अपने शहर लौट आया और वापस कंपनी के काम में लग गया। महीना पूरा होने से पहले मुंबई से भी बुलावा आ गया। बुलावे पर जाने से पहले मुझे जीसा और भाभू से इजाजत लेनी जरूरी थी, क्योंकि शिवदान की अकाल मृत्यु के बाद जीसा ने अपनी सारी उम्मीदें और जिम्मेदारियां मुझ पर छोड़ रखी थीं और उनसे बिना पूछे कोई कदम उठाना तो और बड़ी गलती होती। मैं उन्हें यह समझाना चाहता था कि बैंक की यह नौकरी, जीवन में आगे बढ़ने का एक अच्छा मौका है, खुद भाई की भी यही राय थी कि मैं किसी बडी कंपनी से जुड़कर काम करूं।
‘‘जीसा, अपने लिए यह खुशी की बात है कि मुझे मुंबई से एक बड़ी बैंक में काम करने के लिए बुलावा आया है.... मैं आपकी इजाजत लेने के लिए आया हूं...! उन्होंने मुझे अगले हफ्ते ही मुंबई आने के लिए कहा है... आप कहें तो मैं कल ही उन्हें अपनी मंजूरी भेज दूं... आखिर मैंने ही हिम्मत जुटा कर जीसा के सामने अपनी इच्छा प्रकट कर दी। जीसा बिना कोई उत्तर दिये अलाव से उठती ज्वालाओं की ओर देखते रहे... उन्होंने मेरी बात का कोई उत्तर नहीं दिया, फकत् एकबार मेरी ओर देखा और वापस नज़र नीची कर ली...वे शायद उत्तर तलाश कर रहे थे... किसी गहरी चिन्ता में डूबे हुए!

उन्हें यों चुप और गुमसुम बैठे देखकर मुझे चिन्ता भी हो रही थी। फिर यह भी लगा कि नौकरी के लिए इजाजत मांगना तो इतनी चिन्ता का कारण नहीं होना चाहिए, मैं खुद एकबारगी चिन्ता में पड़ गया और विचार करने लगा कि ऐसा क्या कारण हो सकता है, अगर बिना पूछे चला जाता तो जीसा और घरवालों का उम्र भर का उलाहना रह जाता और पूछ रहा हूं तो यह हाल है! मुझे अपने सामने एक-टक निहारते देखकर वे बोले, ‘बुलावा आ गया, वह तो बड़ी बात है, लेकिन यहां के घर-परिवार के बारे में क्या सोचा है, इसे किसके भरोसै छोड़ने का इरादा है... मेरी उम्र इकहत्तर पार कर गई है...इसी के आस-पास अपनी मां की जान लो... अब कोई दुबारा तो जवान होने से रहे... पीछे रही तुम्हारी भाभी और उनकी दोनों बेटियां, तो उनकी रखवाली और संरक्षण मुझे तो तुम्हारे ही जिम्मे दीखती है, अब विचार कर लो कि तुम्हें क्या करना चाहिए... जीसा ने संजीदा स्वर में अपनी समझ से पूरी बात बता दी थी।

अपने तर्क को और वजनी बनाते हुए उन्होंने फिर आगे बात बढ़ाई, ‘मुझे तो यह समझा दो कि इस घर में क्या आज तुम्हें अपने जिम्मे कोई काम नहीं दीखता कि सैकड़ों कोस दूर जाने को तैयार हो गये... यदि नौकरी का उद्देश्य ऊंची कमाई करना है, तो वह भी हिसाब लगाकर देख लो कि क्या कोई नौकरी तुम्हें इस घर के काम से बढ़कर कमाई दे सकती है। हो सकता है कि बडे़ शहर में रहने की कुछ नयी सुख-सुविधाएं मिल जाएं... लेकिन अपने पूर्वजों की बरसों की कमाई और साख से बनाया हुआ यह घर क्या तुम्हें इतना सुकून नहीं देता कि उसकी अनदेखी करके उन सुख-सुविधाओं को ज्यादा महत्व दे रहे हो... थोड़ा सोच-विचार कर फैसला करें नरपत बना, क्योंकि अब आप बड़े हो, बालिग हो गये हो और आनेवाले दिनों में इस घर के मुखिया भी होंगे... मैं तो आज ही तुमको यह जिम्मेदारी सौंपने को तैयार बैठा हूं... इतनी बात कहकर वे चुप हो गये, जैसे अब और कुछ कहने को बाकी न रहा हो। उन्होंने मेरी चेतना और मर्म पर पूरा दबाव बनाया था और अपने मन निश्चिंत हो गये थे कि उनकी इस सोच का मेरे पास कोई तोड़ नहीं हो सकता...!
मुझे अचरज हुआ कि जीसा बदले हुए हालात से परिचित होते हुए भी, जाने क्यों अनजान-से बन रहे थे। वे जानते थे कि शिवदान के स्वर्गवास के बाद इन तीन वर्षों में भाभी की सोच में काफी फर्क आ गया था और वह मुझे तो स्वाभाविक ही लग रहा था। आने वाले दिनों में उनकी दोनों बेटियां अपना भविष्य किसी बड़े शहर के आश्रय में ही खोजने में लगी हुई हैं... खुद भाभी को जयपुर में शहीद विधवा के नाम पर एक पेट्राल पंप चलाने की सुविधा मिलने वाली है...।
मैंने भाभू से बात की तो उन्होंने तो इसे हंसकर ही टाल दिया। खुद भाभू, जो कभी बहुत-सी दुधारू गायों की मालकिन हुआ करती थीं, अब एक गाय रखकर ही संतुष्ट हैं और इतनी ही घर की जरूरत मानती हैं। पिछले तीन वर्षों से खेती हिस्सेदारी के आधार पर हो रही है... खुद जीसा का यही सोच है कि अब इतनी ही पार पड़ जाए तो बहुत है! इससे अधिक न घर की जरूरत है और न सम्हालनी ही संभव। खुद लोगों को कहते फिरते हैं कि यदि नरपत को इतनी ऊंची पढ़ाई करवाई है, तो कोई एक जगह बांधकर बिठाने के लिए थोड़े ही करवाई है। मैं यह बात अच्छी तरह समझता हूं कि आज सभी अपने मन की उलझन में निपट अकेले हैं, अपने सवालों के उत्तर से वे अनजान नहीं हैं, लेकिन आश्चर्य की बात है कि वे आज मुझसे ही इसका उत्तर और निराकरण मांग रहे हैं।
अपनी बात पर और बल देते हुए वे बोले, ‘मुझे तो यह बताओ नरपत बना कि कल को तुम्हारी शादी होगी, दुल्हन आएगी... दीखती बात है कि उसे तुम अपने साथ ही रखना पसंद करोगे... यह भी हो सकता है कि जहां काम लगो, वहीं किसी के साथ घर बसाने का संयोग बना लो....इस लिहाज से मुझे नहीं लगता कि तुम्हें इस घर में या इस हलके में खुद के टिकाव की कोई गुंजाइश दीखती हो।‘
मैं अपनी जुबान पर आती यह बात कहना चाहता था कि ‘जीसा, पंछी अपनी उड़ान के जिस मुकाम पर किसी डाल पर अपना रातवासा लेता है, वह एक तरह से उसका घर ही हुआ करता है और उसे इतनी छूट तो देनी ही पड़ती है कि वह अपनी पहचान कायम रख सके। इनसान की यह खासियत मानी जाती है कि वह भले ही दुनिया में कहीं किसी कोने में रहे-जीए, वक्त आने पर वह अपनी ज़मीन और जड़ जरूर ढूंढ़ लेता है। मेरे भीतर आपके और अपने बड़ों के दिये हुए ये संस्कार आज भी कायम हैं, इसलिए उन्हें अपनी सीख और संस्कारों पर थोड़ा तो भरोसा रखना ही चाहिए। लेकिन उन्हें ऐसा उत्तर देना शायद छोटे-मुंह बड़ी बात होती, इसलिए प्रत्यक्ष में तो मैं कुछ भी नहीं कह सका।
मैं जानता था कि उनके सवालों के उत्तर उन्हीं के धरातल पर खड़े होकर देना आसान नहीं था। इसी उलझन में एक-बारगी मैं अपने आप में अकेला-सा हो गया। जीसा, भाभू और भाभीसा की अपनी उलझनें थीं। खुद मुझे ही इन सारी बातों पर नये सिरे से विचार करना था और वह भी किसी के मन को बिना कोई ठेस लगाए। घर-परिवार का अहित किये बिना, ऐसा निराकरण खोजना था, जो उस पुश्तैनी घर का और मेरी अपनी जिन्दगी का, दोनों का मान रख सके...

Sunday 6 September, 2009

अपनी जनता का लेखक : फ्रांस ईमिल सिल्लान्पा


विश्‍वसाहित्‍य में भारतीय भाषाओं जैसी कई भाषाएं हैं जिन्‍हें या तो कभी नोबल पुरस्‍कार नहीं मिला अथवा एक ही बार मिला है। ऐसी ही एक भाषा है उत्‍तरी यूरोपीय देश फिनलैंड की सुओमी भाषा, जिसे सामान्‍य तौर पर फिनिश कहा जाता है। यूरेलिक भाषा परिवार की इस भाषा का इतिहास बहुत पुराना नहीं है, लेकिन इसका साहित्‍य इतना समृद्ध है कि इसमें लिखे उपन्‍यासों का दुनिया की तमाम भाषाओं में अनुवाद ही नहीं होता, बल्कि हॉलीवुड में उस पर फिल्‍में भी बनती हैं। दुर्भाग्‍य से हिंदी में सुओमी भाषा की अब तक मेरी जानकारी में सिर्फ दो पुस्‍तकें आई हैं, जिनमें एक फिनलैंड का राष्‍ट्रीय महाकाव्‍य ‘कालेवाला’ है, जिसमें प्राचीन फिनिश लोक कविताओं को एलियास लोनरो ने पंद्रह साल की मेहनत के बाद संग्रहित किया था। हिंदी में इसका अनुवाद प्रसिद्ध कवि विष्‍णु खरे ने किया और दूसरी किताब माइका वाल्‍तारी का प्रसिद्ध उपन्‍यास ‘द इजिप्शियन’ है, जिसका ‘वे देवता मर गए’ नाम से अनुवाद प्रकाशित हुआ। सुओमी भाषा को वैश्विक स्‍तर पर पर पहली बार तब जाना गया, जब 1939 में फ्रांस ईमिल सिल्‍लान्‍पा को नोबल पुरस्‍कार प्रदान किया गया। सिल्‍लान्‍पा के लिहाज से यह पुरस्‍कार भी उनके चमत्‍कारिक जीवन की तरह एक चमत्‍कार ही था। इस वर्ष नोबल पुरस्‍कार की दौड़ में उनके साथ ‘सिद्धार्थ’ के रचयिता प्रसिद्ध जर्मन लेखक हरमन हेस भी थे, जिन्‍हें 1946 में नोबल पुरस्‍कार मिला। सिल्‍लान्‍पा के महत्‍व का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि मंगल और गुरू के बीच की परिधि में भ्रमण करने वाले क्षुद्र ग्रह ‘1446 सिल्‍लान्‍पा’ को 1938 में उन्‍हीं के देशवासी खगोलविद यरजो वाइसाला द्वारा खोजा गया और सिल्‍लान्‍पा के नाम पर उसका नामकरण किया गया।

सिल्‍लान्‍पा का जन्‍म 16 सितंबर, 1888 को एक बेहद गरीब परिवार में हुआ। पिता दिहाड़ी मजदूर थे और मां नौकरानी। गरीबी की हालत यह थी कि फिनलैंड के भयानक सर्दी वाले वातावरण में पाला पड़ने से उनकी मामूली फसलें, बीज और पालतू पशु ही नहीं कई बच्‍चे भी मारे गए और कुदरत के चमत्‍कार से सिर्फ सिल्‍लान्‍पा ही बच पाए। बालक सिल्‍लान्‍पा को एक घुमंतू स्‍कूल मिला, जिसमें प्रारंभिक शिक्षा हुई। पढाई में होशियार सिल्‍लान्‍पा को जल्‍दी ही एक नियमित विद्यालय मिल गया और गाड़ी चल पड़ी। अच्‍छी शिक्षा के लिए लोगों ने बालक को बाहर भेजने की सलाह दी और माता-पिता ने पेट काटकर बेटे को पढने के लिए शहर भेजा। सिल्‍लान्‍पा ने अच्‍छे अंकों से 1908 में मैट्रिक पास की और किसी दयालु आदमी की दरियादिली के चलते हेलसिंकी विश्‍वविद्यालय में जीव- विज्ञान की पढाई शुरू कर दी। विश्‍वविद्यालय में दत्‍तचित्‍त होकर पढाई में जुटे सिल्‍लान्‍पा को लेखक, कलाकर और बुद्धिजीवी दोस्‍तों की सोहबत मिली और वे पाठ्यक्रम के अलावा भी दूसरी किताबें पढ़ने लगे। पांच साल बाद सिल्‍लान्‍पा को पता चलता है कि अभी परीक्षाएं दूर हैं और दानदाता अब सहायता करने में बिल्‍कुल असमर्थ है। बची-खुची रकम लेकर सिल्‍लान्‍पा गांव लौटे तो देखा मां-बाप पहले से भी बुरे हालात में दिन काट रहे हैं। बेटा अब मां-बाप के साथ रहने लगा और कुछ मदद करने की सोचने लगा।
मां-बाप के कामकाज में हाथ बंटाते हुए सिल्‍लान्‍पा ने एक दिन पड़ौस के गांव से लिखने के लिए कागज-लिफाफे खरीदे और छद्मनाम से एक कहानी लिखकर नजदीकी शहर के एक बड़े अखबार को भेज दी। चमत्‍कार की तरह कहानी अखबार के मुखपृष्‍ठ पर छपी और मेहनताना अलग मिला। उस अखबार में छद्मनाम से लिखने का सिलसिला चल पड़ा और एक नए प्रतिभाशाली लेखक की चर्चा आम हो गई, बस उसे ढूंढ़ने भर की देर थी। जल्‍द ही लोगों ने युवा लेखक सिल्‍लान्‍पा को ढूंढ़ निकाला। एक प्रकाशक ने आगे आकर अग्रिम राशि देकर सिल्‍लान्‍पा को एक किताब लिखने के लिए अनुबंधित कर लिया। ऐसे ही चमत्‍कारों से भरे सिल्‍लान्‍पा के जीवन में 1914 में एक गांव में एक नृत्‍य के दौरान एक लड़की सीग्रिड मारिया मिलती है, जो नौकरानी का काम करती है। मारिया और सिल्‍लान्‍पा के बीच प्रेम होता है और 1916 में दोनों विवाह कर लेते हैं। पच्‍चीस वर्षों के सफल वैवाहिक जीवन में मारिया आठ बच्‍चों की मां बनती है।
1914 में एक अखबार के लिए लेख लिखने के लिए वे स्‍वीडन और डेनमार्क की यात्रा पर निकल पड़ते हैं और पत्रकार बनने की सोच लेते हैं। लेकिन लेखन और पत्रकारिता की कशमकश में वे 1916 में अपना पहला उपन्‍यास ‘लाइफ एण्‍ड सन’ लिख डालते हैं। युद्ध की आशंका के मंडराते बादलों भरे दिनों में एक युवक और दो युवतियों के प्रेम त्रिकोण को बयान करने वाले इस उपन्‍यास को जनता में लोकप्रियता और आलोचकों की प्रशंसा दोनों हासिल हुईं। इसी बीच देश में गृहयुद्ध छिड़ गया, जिसमें सिल्‍लान्‍पा ने जनरल मैनरहाइम का समर्थन किया, जो जर्मन श्‍वेत सेना के साथ था। गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद सिल्‍लान्‍पा को लगा कि इस युद्ध से आखिरकार क्‍या हासिल हुआ, सिवाय हजारों लोगों के रक्‍तपात के? युद्ध के बाद सिल्‍लान्‍पा ने युद्ध के कारण अनाथ हुए बच्‍चों के कल्‍याण के लिए काम करना शुरू कर दिया। इसके साथ वे निरंतर कहानियां लिखते रहे। 1923 में गांव में मकान बनाने की वजह से लेखक कर्जों के बोझ में दब गया और आत्‍महत्‍या की सोचने लगा। उसके प्रकाशक ने लिपिक की नौकरी देने का प्रस्‍ताव रखा, लेकिन स्‍वाभिमानी लेखक नहीं माना। चार बच्‍चों के परिवार को लेकर यह महान लेखक हेलसिंकी आकर रहने लगा। और दस साल बाद फिर से उपन्‍यास लिखना शुरू किया। 1931 में ‘मैड सिल्‍जा’ उपन्‍यास का अंग्रेजी में अनुवाद हुआ तो उनकी ख्‍याति रातों-रात अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर फैल गई। एक किसान युवती के संघर्ष की इस महागाथा को पढ़कर अनेक आलोचकों ने सिल्‍लान्‍पा को नोबल पुरस्‍कार का हकदार बताया। 1932 में ‘द वे ऑफ ए मैन’ में सिल्‍लान्‍पा ने एक आदर्श किसान युवक का खूबसूरत चित्रण किया, जिसे जर्मनी में युवक की शराबनोशी की वजह से प्रतिबंधित कर दिया गया, क्‍योंकि कोई आर्य किसान शराब पिये यह नाजी सरकार को गवारा नहीं था। 1934 में ‘पीपुल इन द समर नाइट’ के रूप में उनका सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण उपन्‍यास आया, जिसमें एक अंचल विशेष में रहने वाले समुदाय का जीवन दर्शाया गया था। 1936 में हेलसिंकी विश्‍वविद्यालय ने सिल्‍लान्‍पा को मानद डॉक्‍टरेट की उपाधि प्रदान की।
1939 में विश्‍वयुद्ध का खतरा दिखने लगा तो यह संवेदनशील लेखक बेहद विचलित हुआ और अपने आपको रोक नहीं पाया। परिणामस्‍वरूप किताब आई ‘क्रिसमस लैटर टू डिक्‍टेटर्स’। इसमें हिटलर, मुसोलिनी जैसे तत्‍कालीन तानाशाहों की जबर्दस्‍त आलोचना की गई थी। इसी साल सिल्‍लान्‍पा की कहानियों का स्‍वीडिश भाषा में अनुवाद हुआ तो नोबल पुरस्‍कार समिति ने उनके नाम पर गंभीरता से विचार किया। नोबल पुरस्‍कार की घोषणा से कुछ माह पहले पत्‍नी मारिया की मृत्‍यु हो जाती है। विषाद में डूबे सिल्‍लान्‍पा अपनी सचिव अन्‍ना मारिया से विवाह करते हैं, यह शादी ज्‍यादा नहीं चल पाती है।
युद्ध के दिनों वे ज्‍यादातर स्‍वीडन में ही रहे। 1940 में गंभीर बीमारी के चलते वे अस्‍पताल में भर्ती हुए और तीन साल तक उनका इलाज चला। इस बीच उनकी दो पुस्‍तकें प्रकाशित हुईं, जिनमें बीते दिनों और खोए हुए आदर्शों को लेकर एक लेखक का अतीत प्रेम प्रकट होता है। विश्‍वयुद्ध समाप्‍त होने पर वे स्‍वदेश लौटते हैं और रेडियो से जुड़ जाते हैं, जहां वे श्रोताओं से अपनी जिंदगी के अनुभव बांटते हैं। 1944 में ‘अगस्‍त‘ और 1945 में ‘द लवलीनैस एण्‍ड रेचेडनैस ऑफ द ह्युमन लाइफ’ उपन्‍यास प्रकाशित होते हैं। रेडियो पर सुनाए गए अनुभवों को लेकर वे अपनी आत्‍मकथा लिखते हैं, जो 1953 में ‘द ब्‍वॉय लिव्‍ड हिज़ लाइफ’ के रूप में सामने आती है। 1956 में राजनीति और समाज पर लिखे गए उनके लेखों का संग्रह ‘डे एट इट्स हाइएस्‍ट’ प्रकाशित हुआ। इस महान लेखक ने अपने समृद्ध रचनात्‍मक जीवन में 3 जून, 1964 को हेलसिंकी में अंतिम सांस ली। विश्‍व साहित्‍य में सिल्‍लान्‍पा को अपने देश की जनता और प्रकृति से प्रेम करने वाले और लेखन में प्रकट करने वाले अद्भुत और महान लेखक के रूप में जाना जाता है। उनके उपन्‍यास ‘मैड सिल्‍जा‘ पर तीन बार लोकप्रिय फिल्‍में बनीं और अनेक कहानियों और उपन्‍यासों पर ढेरों फिल्‍में बनी हैं।