Sunday 26 July, 2009

आ फोटू अठै कयां - सत्यनारायण सोनी की कहानी


राजस्थानी के युवा और अत्यंत प्रतिभावान महत्वपूर्ण कहानीकारों में सत्यनारायण सोनी का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। चूंकि सोनी गांव में रहते हुए एक पारखी, सजग, और यथार्थवादी दृष्टि से गांव और वहां होने वाले निरंतर बदलावों को देखते हैं, इसलिए उनकी कहानियों में ग्रामीण परिवेश का कड़वा तीखा सच उजागर होता है। उनकी कहानियां आसपास के ग्रामीण परिवेश में फैली विसंगतियों और विद्रूपताओं को बहुत खूबसूरती के साथ बयान ही नहीं करतीं, बल्कि पाठक को बुरी तरह झिंझोड़ डालती हैं। सोनी की कहानियों को पढते हुए लगता है जैसे वे किसी भी साधारण घटना को अपने रचनाकौशल और गहरी अंतर्दृष्टि से एक नायाब कहानी बना देने का अद्भुत हुनर रखते हैं। उनके इसी कौशल और दृष्टि को बयान करती एक लाजवाब कहानी है, आ फोटू अठै कयां। प्रस्तुत है इस महत्वपूर्ण कहानी का सार-संक्षेप:-
14 अक्टूबर, 2007, आज ईद है। ईद से दो दिन चहले अजमेर शरीफ में बम फटा। दो मरे, बाइस जख्मी हुए। यह दर्दनाक हादसा देश के लिए शर्मनाक था। लोग इसमें पाकिस्तान का हाथ बताते। लेकिन... लेकिन, पाकिस्तान-हिंदुस्तान छोड़िए... पाकिस्तान में कौनसे इंसान नहीं बसते और हिंदुस्तान में कौनसे शैतान नहीं रहते। पाकिस्तान का ही एक इंसान ईद से एक दिन पहले की शाम नवभारत टाइम्स की ओर से आयोजित ‘दिल्ली मेरा दिल' कार्यक्रम में गजलें पेश करता है... गुलाम अली। श्रोता झूम रहे हैं। मेरे दोस्त, अंग्रेजी के प्राध्यापक राजेंद्र कासोटिया वहीं विराजमान हैं। वो मुझे मोबाइल पर गजलें सुनवाते हैं... लाइव। एक गजल के शेर थे-
कैसी चली है अबके हवा तेरे शहर में
बंदे भी हो गए हैं खुदा तेरे शहर में
क्या जाने क्या हुआ कि परेशां हो गए
इक लहजा रुक गई थी सबा तेरे शहर में
न दुश्मनी का ढब है न कुछ दोस्ती के तौर
दोनों का इक रंग हुआ तेरे शहर में
शायद उन्हें पता था कि खातिर है अजनबी
लोगों ने उसे लूट लिया तेरे शहर में।
शायर तो शायर है, इसमें हिंदुस्तान-पाकिस्तान क्या, और क्या हिंदू-मुसलमान?
लेकिन उस आदमी का क्या करें... जो पिछले दिनों रामस्वरूप किसान के बाहर वाले कमरे में आकर बैठ गया। कमरे में लगी तस्वीरों की तरफ अंगुली करते हुए पूछा, ये किसकी फोटो है? किसान जी ने बताया, किशोर कुमार की। उसने दूसरी फोटो की ओर इशारा कर पूछा, और ये? मोहम्मद रफी की। किसान जी रफी के जबर्दस्त फैन हैं, उनका बेटा कृष्ण भी। रफी का नाम लेते ही किसान जी के चेहरे पर चमक आ गई और आंखों में नूर। जैसे रफी का नाम लेने से ही उन्हें गर्व महसूस हुआ। लेकिन... लेकिन उस शख्स की आंखों में जैसे जहर बुझे तीर थे और वैसे ही उसके बोल, 'इस तुर्क की फोटो, आपके घर?' सुनते ही किसान जी के चेहरे की रंगत बदल गई, ‘भाई साब, पानी पीजिए और यहां से तुरंत चलते बनिए, मैं आपसे बात नहीं कर सकता।' और वो आदमी चला गया।
-------
आज ईद है। मेरी नींद भी नहीं खुली थी कि विजय का फोन आ गया।
'गुरूजी ईद मुबारक।'
'तुझे भी... और सुना।'
'गुरूजी ईद मुबारक का एक धांसू एसएमएस तैयार करके भेजो ना।'
क्यों भाई, तेरे को क्या जरूरत है?
'क्यों ईद अपनी नहीं है क्या?' वो हंसते हुए बोला और मैंने भी हंसते हुए कहा, 'अभी भेजता हूं।' इतने में ही महबूब अली का मैसेज आया,
'आज खुदा की हम पर हो मेहरबानी
करदे माफ हम लोगों की सारी नाफरमानी
ईद का दिन आज आओ मिल करें ये वादा
खुदा की ही राहों में हम चलेंगे सदा
सारे अजीजों अकरीबों को ईद मुबारक।'
इसी के साथ मलसीसर से आमीन खान का मैसेज आ गया-
'ईद-दिवाळी दोनूं आवै, ईं महीनै रै मांह।
हिन्दु-मुसळिम सगळा मिलै, घाल गळै में बांह।'
मैंने दोनों मैसेज विजय को भेज दिये।
------
घर में रौनक है। आज बेटी नीतू अपनी सहेली मैमुना के घर जीमण पर जा रही है। वो तैयारी कर रही है। इसी बीच मुझे एक बात याद आई, जो नीतू को लेकर उसकी मैडम ने कही थी, 'नीतू की संगत सुधारो।' मैंने मैडम से तो ज्यादा सवाल नहीं किये, लेकिन मेरी चिंता बहुत बढ़ गई। शाम को मैंने बड़े प्रेम से नीतू को मैडम की बात बताई। सुनते ही वो तो रोने लगी...। ' पापा, मैडम मैमुना के कारण यह सब कहती हैं।' मुझे आश्‍चर्य हुआ, 'क्यों?' नीतू बोली, 'पापा, मैडम को मुसलमानों के बच्चे अच्छे नहीं लगते।'
-------
प्रमोद को भी मुश्‍ताक ने न्यौता दिया है। मिठाइयां उड़ेंगी। उसने भी मुश्‍ताक के लिए तोहफा पैक करवा लिया है। वो तैयार हुआ इतने में ही मुश्‍ताक आ गया अपनी गाड़ी लेकर, साथ में उसके दो और दोस्त भी थे। नीतू मैमुना और प्रमोद मुश्‍ताक के घर चल दिये।
------
दिवाली के दिन नजदीक आ गए हैं। हारून आज भी नहीं आया। रंग पता नहीं कब होगा। पत्नी कहने लगी, 'पंद्रह साल हो गए, इस घर का तो मुहूर्त ही पता नहीं कब निकलेगा।' मैंने कहा, 'आज तो ईद है, हारून आज तो आएगा नहीं। ईद के अगले दिन काम लगाने की कह रहा था।' पत्नी बोली, 'तो पूछ लो ना फोन करके, अगर कल शुरू करे तो मैं आज ही सामने वाले दोनों कमरे खाली कर लूं। कंप्यूटर और बेड बाहर के कमरे में जचाना पड़ेगा।' हां भई पूछता हूं, कहकर मैंने हारून को मोबाइल लगाया। घण्टी की जगह ‘हरे रामा हरे कृष्णा' सुनाई पड़ा तो मैंने फोन काट दिया। सोचा, यह रिंगटोन हारून की नहीं हो सकती, शायद गलत नंबर लग गया है। फिर नंबर मिलाया, वही रिंगटोन। मैंने अजय को आवाज दी, वो आया। मैंने कहा कि बेटा जरा हारून का नंबर तो डायरी में देखकर बता। फिर नंबर मिलाया, फिर वही रिंगटोन। उधर फोन रिसीव हुआ और मेरे बोलने से पहले ही उसकी आवाज आई, 'गुरूजी राम राम।' मैंने भी राम-राम कहकर उसे ईद की मुबारकबाद दी। बदले में उसने मुझे ईद मुबारक कहा। मैंने पूछा, 'फोन तो तेरा ही है ना और ये रिंगटोन?' उसने कहा, 'क्यों गुरूजी अच्छी नहीं लगी?' मैंने बात टालने के मकसद से कहा, 'नहीं अच्छी है। हारून तू कल से काम लगा रहा है, तो सामान बाहर निकालना शुरू कर दें?' उसने कहा, 'हां गुरूजी, बाहर निकाल लो, कल सुबह आठ बजे आ जाउंगा।' मैंने कहा, 'ठीक है' और फोन काट दिया।
मैं सामान बाहर निकालने लगा। मैं एक कमरे की अलमारी खाली कर रहा था, इसी कमरे में सामने की तरफ पूजा का स्थान है। मतलब यहीं पर शिवजी और गणेशजी की मूर्तियां हैं। मां दुर्गा, लक्ष्मी और हनुमानजी की तस्वीरें लगी हुईं हैं। मैं कभी पूजापाठ नहीं करता और मेरी पत्नी को इस बात से बहुत शिकायत रहती है। वो है पक्की धार्मिक। स्कूल का दरवाजा नहीं देखा, लेकिन बच्चों की देखरेख करते हुए घर में ही पढ गई, और कुछ नहीं अक्षर तो बांच ही लेती है। कल ही बारह महीनों के व्रत त्योहारों की किताब खरीदी है। वो भी यहीं जमा रखी है।
अलमारी खाली करते हुए मेरी नजर पूजास्थल पर पड़ी। हनुमान जी और दुर्गा जी की तस्वीर के बीच मुझे एक नई तस्वीर नजर आई। हाथ में उठाकर देखी, एक पुराने पोस्टकार्ड पर अखबार की एक रंगीन कतरन चिपकी हुई थी। जिसके शीर्ष पर चांद और सितारे का चित्र और हिंदी और उर्दू में ऊपर-नीचे मोटे अक्षरों में ‘ईद मुबारक' लिखा हुआ था। मेरे हर्ष का पारावार नहीं था।
मैंने वो तस्वीर उठाई और आंगन में आकर पूछा, 'ये तस्वीर किसने लगाई पूजाघर में?'
'मैंने लगाई।' पत्नी के बोल थे। वो मुस्कुराती और मेरा मुंह देखती हुई फिर बोली, 'लेकिन आपको क्या तकलीफ है?'
मुझे क्या तकलीफ हो सकती है और इस बात से किसी को भी क्यों कोई तकलीफ होगी?
कहानी अंश
घर में रुणक है।
आज बेटी नीतू नै आपरी सहेली मैमुना रै घरां जीमण जावणो है। बा त्यारी करै।
इणी बीच म्हानै एक बात चेतै आवै, जकी नीतू री मैडम म्हनै कैयी ही कै नीतू री संगत सुधारो।
म्हैं घणा सवाल-जवाब नीं कर्या हा उण मैडम सूं, पण म्हारी चिंता बधगी ही। आथण घणै हेत सूं नीतू नै वा ओळमं-वाळी बात बताई। सुणर वा तो रोवण लागगी।...
'पापा, मैडम मैमुना खातर कैवै।'
म्हनै अचूंभो हुयो, ...'क्यूं?'
'मैडम नै मुसळमानां रा टाबर आछा कोनी लागै।'
.............................
लेखक परिचय
सत्यनारायण सोनी
जन्म 10 मार्च, 1969
प्रकाशित कृतियां
घमसाण (राजस्थानी कहानी संग्रह), पेडों का पालनहार लादू दादा, पैसों का पेड़, रंग बिरंगे फूल खिले
पुरस्कार-
१. मारवाड़ी सम्मेलन, मुम्बई का स्व. घनश्याम दास सराफ सर्वोत्तम राजस्थान साहित्य पुरस्कार- 1997
२. ज्ञान भारती, कोटा का स्व. गोरीशंकर कमलेश राजस्थानी साहित्य पुरस्कार- 1997
३. राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर का पैली पोथी पुरस्कार- 1997
दैनिक नवज्योति के रविवारीय परिशिष्‍ट में 26 जुलाई, 2009 को एक कहानी स्तंभ में प्रकाशित।

Tuesday 21 July, 2009

सजा-यात्रा - पुष्पा देवड़ा की कहानी






राजस्थान में साहित्यकार दंपतियों में रांगेय राघव और सुलोचना रांगेय राघव के बाद शरद देवड़ा और पुष्पा देवड़ा का नाम बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है। आज हम पुष्पा देवड़ा की एक कहानी और उनके बारे में चर्चा करेंगे। स्व. शरद देवड़ा जैसे महान साहित्यकार की जीवनसंगिनी पुष्पा जी का जन्म पश्चिमी बंगाल के रानीगंज कस्बे में 13 जनवरी, 1945 को हुआ। कोलकाता में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की और देवड़ा जी के साथ परिणय सूत्र में बंध जाने से बचपन का साहित्य प्रेम परवान चढ़ने लगा। बांग्ला और हिंदी दोनों भाषाओं पर उनका असाधारण अधिकार है। बहुत कम लोगों को जानकारी है कि विमल मित्र को हिंदी में लाने का श्रेय ही पुष्पा जी को है। आपने विमल मित्र, ताराशंकर वंद्योपाद्याय और अनेक महत्वपूर्ण बांग्ला लेखकों की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया। लगभग बीस उपन्यास और सैंकड़ों कहानियों को बांग्ला से आप हिंदी में लेकर आईं। अनुवाद और परिवार की व्यस्तता के चलते मौलिक लेखन काफी देर से प्रारंभ हुआ, इसलिए हिंदी में उनकी कहानियों का पहला संग्रह सोनाली गाथा तथा अन्य कहानियां 2005 में प्रकाशित हुआ। इन दिनों वे दांपत्य संबंधों पर एक उपन्यास और शरद देवड़ा के जीवन पर एक किताब लिख रही हैं। उनके कथा संसार में आपको दांपत्य जीवन के विविध दृश्‍य देखने को मिलते हैं। नारी मन को पुष्पा जी बहुत गहराई से भेदते हुए अत्यंत मर्मस्पर्शी प्रसंग निकालकर लाती हैं और पाठकों के मन में दर्द का एक गहरा अहसास पैबस्त कर देती हैं। किस प्रकार पुरुष स्त्री को छलता है और किस प्रकार वे छली जाती हैं, क्यों दांपत्य में जरा-सी बात से भयानक तनाव पैदा हो जाता है, इसे पुष्पाजी से बेहतर और कौन बयान कर सकता है। इसी को प्रमाणित करती हुई कहानी ‘सजा-यात्रा का सार-संक्षेप प्रस्तुत है।
मैं अपने पात्रों के साथ दिमागी उधेड़बुन में लगी थी कि सड़क से बढे़ आते हुए उस अजीबोगरीब शख्स की शक्ल उभरने लगी। टोपी, कमीज, धोती और अकड़ी हुई गर्दन में सोने की चेन, हाथों में बैग और पांवों में रबड़ के जूते। कल ही इनके बारे में जब पता चला तो इनकी अजीब शख्सियत का अहसास हुआ। इनसे ध्यान हटा तो उपर से आने वाले हंसी-ठट्ठे में अटक गया, रोज की तरह, कल भी तो ऐसा ही हुआ था।
हमारे उपर वाले फलैट की मिसेज मित्तल ही खुद परिचय करने आईं। मेरा तो खुद आगे बढकर बात करने में संकोच होता है। उन्होंने सिलसिला हमारी बेटी से शुरु किया जो दूसरी कक्षा में पढती है। यहां आने के दूसरे दिन ठेले वाले से सब्जी खरीदने मैं भी पहुंची बेटी के साथ। वो अनुराग से बेटी के बहाने बतियाने लगीं। वापसी में मेरे कहने पर वे हमारे यहां आईं। पता चला वे जौहरी परिवार से हैं। मेरे बारे में खुद ही कहने लगीं कि आपके बारे में सुना कि आप तो पति-पत्नी लेखक हैं, तभी सोच लिया कि आपसे दोस्ती करूंगी। वो हर प्रकार के सहयोग का वादा कर चली गईं तो बड़ी देर तो मैं उनके हंसमुख स्वभाव के बारे में सोचने लगी। मेरा लेखक मन और जानने के लिए व्याकुल हो उठा।
दूसरे दिन शाम जब मैं लिखने में और बेटी होमवर्क में लगी थी तो उपर से उन्होंने आवाज लगा हमें बुला लिया। जाने पर पता चला कि उनके खुशमिजाज बेटे-बेटी भी घर पर हैं। दोनों कालेज में पढ रहें हैं। घर के भीतर का जायजा लेने पर लगा ही नहीं कि ये जौहरी परिवार से हैं। सब कुछ अत्यंत साधारण। शोख बेटी, चंचल बेटा और हंसमुख मां से बातों के बीच चाय-नाश्‍ते में पता ही नहीं चला कैसे वक्त गुजर गया। एक गरजदार आवाज में जब दरवाजे पर खोलो शब्द गूंजा तो घर से अचानक हंसी गायब हुई और गंभीरता छा गई। बेटे ने कहा, बाउजी आ गए। प्रतिक्रिया में मैं भी अपने घर चल पड़ी। तभी इन महाशय पर एक नजर गई जो अभी सड़क से आ रहे हैं। घर तक आते हुए कई प्रश्‍न मेरे दिलोदिमाग में उमड़ते रहे। दो दिन गुजर गए। लेकिन आज उसी वक्त देखा कि बेटी ने जैसे ही घण्टी की आवाज सुन दरवाजा खोला मिसेज मित्तल और उनके बेटा-बेटी खड़े थे। बेटे पुनीत ने कहा कि हम पान खाने आए हैं। और इस तरह हमारी निकटता बढती गई।
एक दिन शाम छह बजे उन्होंने फिर बला लिया। आज वो बेहद उदास लग रही थीं। मैं बालकनी में उनके पास बैठी थी। मैंने पूछा बच्चे कहां गए, पता चला दोस्तों के यहां पढने गए हैं। इसके बाद तो उनका दुखों का बांध टूट पड़ा। कहने लगीं कि बहन मैंने तो अपनी नियति से समझौता कर लिया है, लेकिन बच्चे बड़े हो गए हैं। इनकी उपेक्षा और डांटडपट बर्दाश्‍त नहीं होती। बेटा तो इनकी सुनता नहीं, पर बेटी क्या करे। सुबह बेटा कालेज जा रहा था कि इन्होंने अपने साथ आफिस चलने के लिए कहा। बेटे ने कहा दो पीरियड बाद आ जाउंगा तो बिफर गए, कहने लगे, कौनसी नौकरी करनी है। लड़का भी बिफर गया और बोला, अब तो सीधे घर आउंगा और कहीं नहीं। इस पर वे और बिगड़ गए और लड़के को घर से निकल जाने के लिए कह दिया। मैं दोनों के बीच आ गई और कह दिया कि अगर ये घर से जाएगा तो मैं भी इसके साथ जाउंगी। इस पर कहने लगे, तुम मेरे पीछे आई हो या इसके, और गुस्से में ये बिना कुछ खाए घर से निकल गए। उदासी उनके चेहरे पर मुर्दनी की तरह छा गई थी। कुछ देर चुप रहने के बाद उन्होंने अपने दर्द की परतें एक-एक कर खोल दीं।
मिसेज मित्तल ने कहा कि मैं अपने मां-बाप की इकलौती संतान हूं। विवाह के बाद अकेले पड़ गए हैं दोनों। वे चाहते हैं कि बेटा उनके साथ रहे और पढाई के साथ उनके हीरे-जवाहरात के कारोबार को भी संभाल ले। अगर मैं इसे वहां भेज दूं तो मेरा मन कैसे लगे, कभी सोचती हूं कि भेज ही दूं, जिंदगी तो संवर जाएगी। मैंने पूछा कि भाई साहब ऐसा क्यों करते हैं। कहने लगीं कि वे खुद को मालिक समझते हैं और यह भी कि हम सब उन पर आश्रित हैं। मुझे तो शुरु के कुछ सालों के अलावा इनका यही व्यवहार लगा है। और किसी पर तो इनकी हुकूमत चलती नहीं इसलिए सारा गुस्सा घर वालों पर निकालते हैं। आप ही बताइये कहां तक सहन करें, मैं पूरब चलूं तो ये पश्चिम चलेंगे। घर में डबल बैड की बात करो तो कहेंगे, जमीन पर सोना अच्छा लगता है। फ्रिज आने से बासी सब्जियां खाने को मिलेंगी, ट्यूबलाइट की रोशनी नहीं सुहाती। घर की सामान्य सुविधा की चीजें भी इन्हें इसलिए बुरी लगती हैं कि कहीं इन्कम टैक्स वालों को पता नहीं चल जाए। मुझसे रहा नहीं गया, डरते-डरते पूछ ही लिया, ऐसे में आपके निजी संबंध मेरा मतलब दैहिक संबंध। कहने लगीं कि इनके साथ तो मुझे अपनी हालत बाजारू औरत से भी गई गुजरी लगती है। उसकी कम से कम पैसे के लिए ही सही अपनी मरजी तो शामिल रहती है। समृद्ध परिवार की मिसेज मित्तल की जिंदगी के अंदरूनी कलह, दुख, क्रोध और घृणा के साथ उनकी बेबसी से मेरा मन अवसाद से भर गया। कैसे उनका दुख बटाउं, सामने सड़क पर मेरे पति आते दिखे तो मैं उनसे इजाजत ले घर आ गई।
मैं मिसेज मित्तल के बारे में गहराई से सोचने लगी। क्या सिर्फ कुसूर मित्तल साहब का ही है, क्या इसमें मिसेज मित्तल का कोई दोष नहीं, क्या वो किसी भी प्रकार से इन सब चीजों से निजात नहीं पा सकती थीं, उनकी त्रासदी मेरे मन को मथती रही और कोई समाधान नजर नहीं आया। इस बीच मेरे पति का दिल्ली तबादला हो गया और हम दिल्ली चले गए। फिर पांच साल तक जयुपर आना ही नहीं हुआ।
पांच साल बाद जब हम गाड़ी से जयपुर आ रह थे तो मुझे मिसेज मित्तल की याद सताने लगी। पता नहीं वो अब किस हाल में होंगी, उस बिल्डिंग के पास से गुजरते हुए मैंने देखा कि बालकनी में कोई चेहरा नहीं नजर आया। दूसरे दिन पतिदेव को किसी काम से जाना था, तो मैंने कहा कि मुझे मिसेज मित्तल से मिलना है आप मुझे वहां छोड़ दीजिएगा और वापसी में ले लेना।
दोपहर के तीन बजे मैं मिसेज मित्तल के बारे में सोचती हुई उनके दरवाजे पर पहुंची और कालबेल बजाई। दरवाजा खुलने पर उदास और निढाल मिसेज मित्तल दिखाई दीं। मेरे नमस्कार पर जबरन मुस्कुराने की कोशिश करती हुईं बोलीं, अरे इतने साल बाद अचानक कहां से प्रकट हो गईं, फिर हमारी बातों का सिलसिला चल पड़ा। उनमें कोई बदलाव नहीं आया था। घर की हालत अब भी वैसी ही थी। मैंने पूछा कि आपकी यह हालत कैसे हुई, घर में कोई नहीं है क्या, कहने लगीं कि बेटा तंग आकर आखिरकार मुंबई चला गया, बेटी की शादी हो गई। मित्तल साहब दो साल से सर्वाइकल स्पोंडेलाइटिस से पीड़ित होकर घर में ही रहते हैं। बिजनेस खत्म हो गया, अब हुंडियों का कारोबार करते हैं। पूरे दिन बही खातों में घुसे रहते हैं। ना कोई दवा लेते हैं और ना ही एक्सरसाइज करते हैं। पहले से ज्यादा तुनकमिजाज हो गए हैं। अब इनके कारण घर छोड़कर कहीं जा भी नहीं सकती। ये घर मेरी कैद बन गया है।
मैंने पूछा कि दिन कैसे कटता होगा। बोलीं, खाना बनाकर इन्हें खिलाने के बाद इस खिड़की पर आकर बैठ जाती हूं। राह चलते लोगों को देखना, किताब, पत्रिकाएं पढना या पुराने एलबमों में तस्वीरें देखना, बस यही रह गया है। वो चाय के लिए उठने लगी तो मैंने ही मना कर दिया। इतनी देर में भी मित्तल साहब की मौजूदगी का अहसास नहीं हुआ तो पूछा कि क्या वो सो रहे हैं। दिन में क्या हमे तो रात में भी सोने के लिए गोलियां लेनी पड़ती हैं। मैंने पूछा कि क्या आपस में एक दूसरे की तकलीफ को लेकर बात भी नहीं करते, कहने लगीं, जिस आदमी को मेरी मानसिक तकलीफ का कभी खयाल नहीं आता वो शारीरिक तकलीफ के बारे में क्या पूछेगा, उसी वक्त मुझे नीचे गाड़ी का हार्न सुनाई दिया, ये मुझे लेने आ गए थे।
जाते वक्त मेरी नजर मिसेज मित्तल की खिड़की पर ही टिकी रहीं। जाली के पीछे वह छाया सी दिख रही थीं। मेरा मन गहरी उदासी से भर गया। इस नारी की सजा यात्रा कहां खत्म होगी, पत्नीत्व, मातृत्व कोई सुख नहीं। एक ही छत के नीचे तलाकशुदा जैसा जीवन। आखिर इसका कसूर क्या है।
कहानी अंश
वे क्षुब्ध स्वर में बोलीं, जिस तरह की जिंदगी मैं जी रही हूं, उसमें किसी भी तरह के संबंध में मेरी भागीदारी की तो गुंजाइश ही कहां है, उस वक्त मुझे अपनी स्थिति बाजारू औरत से भी गई गुजरी लगती है। उसमें उसकी मरजी तो शामिल रहती है, चाहे पैसे के लिए ही हो। मगर मैं, मुझे तो हर वक्त इनके साथ दो ध्रुवों की सी मानसिकता में जीना पड़ता है, लेकिन रात में सोते समय जब मरजी हो पति नाम का यह जीव मुझे अपनी लपेट में ले लेता है।
...
पुरुष द्वारा क्रिएट दर्दनाक परिस्थितियों को झेलती इस नारी की सजा यात्रा आखिर कहां जाकर खत्म होगी। उनकी दयनीय हालत और दर्दनाक परिस्थितियां मेरे संवेदनशील मन को यह सोवने पर विवश कर रही थीं कि क्या नारी जीवन इतनी बड़ी यातना भी हो सकता है, न पत्नीत्व का सुख है, ना मातृत्व की तुष्टि। उम्र के इस पड़ाव पर घर की रानी होने का गौरव महसूस करने की बजाय पति के साथ एक ही छत के नीचे तलाकशुदा-सा जीवन बिताने पर मजबूर इस स्त्री का आखिर कसूर क्या है।

Monday 20 July, 2009

पहला नोबल विजेता कवि स्युली प्रूदोम


जब अल्‍फ्रेड नोबल ने प्रकृति के अध्‍ययन और इससे वाबस्‍ता ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नई खोजों को सम्‍मानित करने के लिए नोबल पुरस्‍कार की परिकल्‍पना की थी तो उसमें साहित्‍य को भी शामिल किया था। इसके पीछे उनकी सोच यह थी कि विभिन्‍न देशों के बीच शांति और भ्रातृत्‍व बढाने के मूल उद्देश्‍य को साहित्‍य भी वैसे ही पूरा करता है जैसे अन्‍य अनुशासन। साहित्‍य में पहला नोबेल पुरस्‍कार फ्रांस के महान कवि स्‍युली प्रूदोम को 10 दिसंबर, 1901 को प्रदान किया गया था। स्‍युली प्रूदोम, जिन्‍हें भारत में प्राय: प्रूदों लिखा जाता है, अपने काल में विश्‍व साहित्‍य के सबसे प्रखर चिंतक कवियों में थे। 16 मार्च, 1839 को जन्‍मे प्रूदोम ने पहले विज्ञान, फिर कानून की शिक्षा प्राप्‍त की और अंतत: कविता की ओर उन्‍मुख हुए। विज्ञान की पढाई के दौरान उन्‍हें आंखों की एक भयानक बीमारी हो गई थी, जिसने उनकी पूरी जिंदगी ही बदल डाली और वे अंतर्मुखी हो गए। एक वैज्ञानिक की मानसिकता और कानून की पेचीदगियां उनके अंतर्मन को व्‍यथित करती रहती थीं, एक अकेलापन और निरपेक्ष उदासी प्रूदोम को विज्ञान के रहस्‍यों और प्राणि जगत के साथ-साथ समूचे ब्रहमांड के अंर्तसंबंधों को लेकर सोचने के लिए विवश करती थी, जिससे वे कविता लिखने के लिए प्रेरित होते थे।
विश्‍व साहित्‍य में प्रूदोम जैसी मानसिक बनावट वाले कवि बहुत हुए हैं, लेकिन प्रूदोम उन दुर्लभ कवियों में हैं, जो ना तो चिंतन कर कविता लिखते हैं और ना ही कविता में चिंतन करते हैं, अपितु उनके काव्‍य में मनुष्‍य की आत्‍मा की गहराइयां, प्रकृति के रहस्‍य, मनुष्‍य की नियति और उसके होने की अर्थवत्‍ता एक वैज्ञानिक दृष्टि के साथ प्रस्‍तुत होती हैं। उनकी कविता से पाठक को एक रहस्‍यमयी जगत के बीच चलने वाले मनुष्‍य के क्रिया व्‍यापार को गहराई से देखने-समझने की एक नई दृष्टि मिलती है। वे मूलत: विज्ञान, दर्शन और आत्मिक संवदनाओं के कवि हैं। प्रूदोम फ्रेंच कविता के इतिहास की विश्‍वप्रसिद्ध धारा ‘पारनासियनवाद’ के बड़े कवियों में थे। यह उन्‍नीसवीं सदी की सकारात्‍मकतावादी काव्‍यधारा थी, जिसने रोमांटिक और बिंबवादी कविता के संधिकाल में जबर्दस्‍त हस्‍तक्षेप किया और भविष्‍य की कविता के लिए मार्ग प्रशस्‍त किया।
पारनासियन कवि कलावाद के प्रणेता गातियर से प्रभावित थे, लेकिन इन कवियों ने शापेनहावर के दर्शन से प्रभावित होकर अपनी कविता को अतिशय भावुकता से मुक्‍त करते हुए क्‍लासिकी विषयों पर कविता लिखी। प्रूदोम के साथ के दूसरे पारनासी कवियों में चार्ल्‍स लिस्‍ले, बेनविले, मलार्मे, वरलेन, कोप्‍पे और हेरेडिया प्रमुख थे। पारनासियन कविता की धारा ने अपने काल में ऐसा जबर्दस्‍त प्रभाव पैदा किया कि फ्रांस की सीमा से पार वह समूचे यूरोप और लेटिन अमेरिका में छा गई। लेटिन अमेरिकी साहित्‍य में इसी विचार ने आधुनिकतावाद को जन्‍म दिया।
स्‍युली प्रूदोम कवि के साथ एक अच्‍छे आलोचक भी थे। उनकी आलोचना की दो पुस्‍तकें प्रकाशित हुईं। 1904 में उनकी संपूर्ण कविताओं का चार खण्‍डों में प्रकाशन हुआ। पारिवारिक विवादों और अस्‍वस्‍थता के कारण उनका लेखन प्रभावित होता रहा लेकिन प्रूदोम ने अविचलित होते हुए कविता का दामन नहीं छोड़ा। सहज, सरल और गहरी संवेदनाओं के इस महान कवि का निधन 6 सितंबर, 1907 को हुआ। पाठकों के लिए यहां प्रस्‍तुत हैं प्रूदोम की दो छोटी कविताएं, जिनसे उनकी महानता का सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है।
हिंडोले
बंदरगाह के किनारे से चुपचाप आगे बढते जाते
जहाजों को उन हिंडोलों की कोई सुध नहीं
जिन्‍हें स्त्रियां झुलाती रहती हैं अपने हाथों से
लेकिन एक दिन आएगा विदाई का
जब स्त्रियां दहाड़ें मार रोएंगी
और उत्‍सुक पुरूष उन क्षितिजिों की ओर तकते रहेंगे
जो उन्‍हें लुभाते आए हैं
और उस दिन बंदरगाह से ओझल हो दूर जाते जहाजों को
सुदूर हिंडोलों की भावनाओं से यह अहसास होगा कि
पीछे कितना कुछ छूट गया है
इस दुनिया में
इस दुनिया में सारे फूल मुरझा जाते हैं
पंछियों के मीठे गीतों की उम्र कम होती है
मैं उस बसंत का स्‍वप्‍न देखता हूं
जो सदाबहार रहे
इस दुनिया में होंठ मिलते हैं लेकिन हौले-से
और माधुर्य का कोई स्‍वाद नहीं बचा रहता
मैं उस चुंबन का ख्‍वाब देखता हूं
जो हमेशा कायम रहेगा
इस दुनिया में हर शख्‍स
दोस्‍ती या प्रेम के वियोग में रो रहा है
मैं उस दुनिया का सपना देखता हूं
जिसमें सब एक साथ रहें
(राजस्थान पत्रिका के १९ जुलाई, २००९ के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित. )

Sunday 19 July, 2009

सजा-यात्रा - पुष्पा देवड़ा की कहानी

राजस्थान में साहित्यकार दंपतियों में रांगेय राघव और सुलोचना रांगेय राघव के बाद शरद देवड़ा और पुष्पा देवड़ा का नाम बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है। आज हम पुष्पा देवड़ा की एक कहानी और उनके बारे में चर्चा करेंगे। स्व. शरद देवड़ा जैसे महान साहित्यकार की जीवनसंगिनी पुष्पा जी का जन्म पश्चिमी बंगाल के रानीगंज कस्बे में 13 जनवरी, 1945 को हुआ। कोलकाता में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की और देवड़ा जी के साथ परिणय सूत्र में बंध जाने से बचपन का साहित्य प्रेम परवान चढ़ने लगा। बांग्ला और हिंदी दोनों भाषाओं पर उनका असाधारण अधिकार है। बहुत कम लोगों को जानकारी है कि विमल मित्र को हिंदी में लाने का श्रेय ही पुष्पा जी को है। आपने विमल मित्र, ताराशंकर वंद्योपाद्याय और अनेक महत्वपूर्ण बांग्ला लेखकों की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया। लगभग बीस उपन्यास और सैंकड़ों कहानियों को बांग्ला से आप हिंदी में लेकर आईं। अनुवाद और परिवार की व्यस्तता के चलते मौलिक लेखन काफी देर से प्रारंभ हुआ, इसलिए हिंदी में उनकी कहानियों का पहला संग्रह सोनाली गाथा तथा अन्य कहानियां 2005 में प्रकाशित हुआ। इन दिनों वे दांपत्य संबंधों पर एक उपन्यास और शरद देवड़ा के जीवन पर एक किताब लिख रही हैं। उनके कथा संसार में आपको दांपत्य जीवन के विविध दृश्‍य देखने को मिलते हैं। नारी मन को पुष्पा जी बहुत गहराई से भेदते हुए अत्यंत मर्मस्पर्शी प्रसंग निकालकर लाती हैं और पाठकों के मन में दर्द का एक गहरा अहसास पैबस्त कर देती हैं। किस प्रकार पुरुष स्त्री को छलता है और किस प्रकार वे छली जाती हैं, क्यों दांपत्य में जरा-सी बात से भयानक तनाव पैदा हो जाता है, इसे पुष्पाजी से बेहतर और कौन बयान कर सकता है। इसी को प्रमाणित करती हुई कहानी ‘सजा-यात्रा का सार-संक्षेप प्रस्तुत है।
मैं अपने पात्रों के साथ दिमागी उधेड़बुन में लगी थी कि सड़क से बढे़ आते हुए उस अजीबोगरीब शख्स की शक्ल उभरने लगी। टोपी, कमीज, धोती और अकड़ी हुई गर्दन में सोने की चेन, हाथों में बैग और पांवों में रबड़ के जूते। कल ही इनके बारे में जब पता चला तो इनकी अजीब शख्सियत का अहसास हुआ। इनसे ध्यान हटा तो उपर से आने वाले हंसी-ठट्ठे में अटक गया, रोज की तरह, कल भी तो ऐसा ही हुआ था।
हमारे उपर वाले फलैट की मिसेज मित्तल ही खुद परिचय करने आईं। मेरा तो खुद आगे बढकर बात करने में संकोच होता है। उन्होंने सिलसिला हमारी बेटी से शुरु किया जो दूसरी कक्षा में पढती है। यहां आने के दूसरे दिन ठेले वाले से सब्जी खरीदने मैं भी पहुंची बेटी के साथ। वो अनुराग से बेटी के बहाने बतियाने लगीं। वापसी में मेरे कहने पर वे हमारे यहां आईं। पता चला वे जौहरी परिवार से हैं। मेरे बारे में खुद ही कहने लगीं कि आपके बारे में सुना कि आप तो पति-पत्नी लेखक हैं, तभी सोच लिया कि आपसे दोस्ती करूंगी। वो हर प्रकार के सहयोग का वादा कर चली गईं तो बड़ी देर तो मैं उनके हंसमुख स्वभाव के बारे में सोचने लगी। मेरा लेखक मन और जानने के लिए व्याकुल हो उठा।
दूसरे दिन शाम जब मैं लिखने में और बेटी होमवर्क में लगी थी तो उपर से उन्होंने आवाज लगा हमें बुला लिया। जाने पर पता चला कि उनके खुशमिजाज बेटे-बेटी भी घर पर हैं। दोनों कालेज में पढ रहें हैं। घर के भीतर का जायजा लेने पर लगा ही नहीं कि ये जौहरी परिवार से हैं। सब कुछ अत्यंत साधारण। शोख बेटी, चंचल बेटा और हंसमुख मां से बातों के बीच चाय-नाश्‍ते में पता ही नहीं चला कैसे वक्त गुजर गया। एक गरजदार आवाज में जब दरवाजे पर खोलो शब्द गूंजा तो घर से अचानक हंसी गायब हुई और गंभीरता छा गई। बेटे ने कहा, बाउजी आ गए। प्रतिक्रिया में मैं भी अपने घर चल पड़ी। तभी इन महाशय पर एक नजर गई जो अभी सड़क से आ रहे हैं। घर तक आते हुए कई प्रश्‍न मेरे दिलोदिमाग में उमड़ते रहे। दो दिन गुजर गए। लेकिन आज उसी वक्त देखा कि बेटी ने जैसे ही घण्टी की आवाज सुन दरवाजा खोला मिसेज मित्तल और उनके बेटा-बेटी खड़े थे। बेटे पुनीत ने कहा कि हम पान खाने आए हैं। और इस तरह हमारी निकटता बढती गई।
एक दिन शाम छह बजे उन्होंने फिर बला लिया। आज वो बेहद उदास लग रही थीं। मैं बालकनी में उनके पास बैठी थी। मैंने पूछा बच्चे कहां गए, पता चला दोस्तों के यहां पढने गए हैं। इसके बाद तो उनका दुखों का बांध टूट पड़ा। कहने लगीं कि बहन मैंने तो अपनी नियति से समझौता कर लिया है, लेकिन बच्चे बड़े हो गए हैं। इनकी उपेक्षा और डांटडपट बर्दाश्‍त नहीं होती। बेटा तो इनकी सुनता नहीं, पर बेटी क्या करे। सुबह बेटा कालेज जा रहा था कि इन्होंने अपने साथ आफिस चलने के लिए कहा। बेटे ने कहा दो पीरियड बाद आ जाउंगा तो बिफर गए, कहने लगे, कौनसी नौकरी करनी है। लड़का भी बिफर गया और बोला, अब तो सीधे घर आउंगा और कहीं नहीं। इस पर वे और बिगड़ गए और लड़के को घर से निकल जाने के लिए कह दिया। मैं दोनों के बीच आ गई और कह दिया कि अगर ये घर से जाएगा तो मैं भी इसके साथ जाउंगी। इस पर कहने लगे, तुम मेरे पीछे आई हो या इसके, और गुस्से में ये बिना कुछ खाए घर से निकल गए। उदासी उनके चेहरे पर मुर्दनी की तरह छा गई थी। कुछ देर चुप रहने के बाद उन्होंने अपने दर्द की परतें एक-एक कर खोल दीं।
मिसेज मित्तल ने कहा कि मैं अपने मां-बाप की इकलौती संतान हूं। विवाह के बाद अकेले पड़ गए हैं दोनों। वे चाहते हैं कि बेटा उनके साथ रहे और पढाई के साथ उनके हीरे-जवाहरात के कारोबार को भी संभाल ले। अगर मैं इसे वहां भेज दूं तो मेरा मन कैसे लगे, कभी सोचती हूं कि भेज ही दूं, जिंदगी तो संवर जाएगी। मैंने पूछा कि भाई साहब ऐसा क्यों करते हैं। कहने लगीं कि वे खुद को मालिक समझते हैं और यह भी कि हम सब उन पर आश्रित हैं। मुझे तो शुरु के कुछ सालों के अलावा इनका यही व्यवहार लगा है। और किसी पर तो इनकी हुकूमत चलती नहीं इसलिए सारा गुस्सा घर वालों पर निकालते हैं। आप ही बताइये कहां तक सहन करें, मैं पूरब चलूं तो ये पश्चिम चलेंगे। घर में डबल बैड की बात करो तो कहेंगे, जमीन पर सोना अच्छा लगता है। फ्रिज आने से बासी सब्जियां खाने को मिलेंगी, ट्यूबलाइट की रोशनी नहीं सुहाती। घर की सामान्य सुविधा की चीजें भी इन्हें इसलिए बुरी लगती हैं कि कहीं इन्कम टैक्स वालों को पता नहीं चल जाए। मुझसे रहा नहीं गया, डरते-डरते पूछ ही लिया, ऐसे में आपके निजी संबंध मेरा मतलब दैहिक संबंध। कहने लगीं कि इनके साथ तो मुझे अपनी हालत बाजारू औरत से भी गई गुजरी लगती है। उसकी कम से कम पैसे के लिए ही सही अपनी मरजी तो शामिल रहती है। समृद्ध परिवार की मिसेज मित्तल की जिंदगी के अंदरूनी कलह, दुख, क्रोध और घृणा के साथ उनकी बेबसी से मेरा मन अवसाद से भर गया। कैसे उनका दुख बटाउं, सामने सड़क पर मेरे पति आते दिखे तो मैं उनसे इजाजत ले घर आ गई।
मैं मिसेज मित्तल के बारे में गहराई से सोचने लगी। क्या सिर्फ कुसूर मित्तल साहब का ही है, क्या इसमें मिसेज मित्तल का कोई दोष नहीं, क्या वो किसी भी प्रकार से इन सब चीजों से निजात नहीं पा सकती थीं, उनकी त्रासदी मेरे मन को मथती रही और कोई समाधान नजर नहीं आया। इस बीच मेरे पति का दिल्ली तबादला हो गया और हम दिल्ली चले गए। फिर पांच साल तक जयुपर आना ही नहीं हुआ।
पांच साल बाद जब हम गाड़ी से जयपुर आ रह थे तो मुझे मिसेज मित्तल की याद सताने लगी। पता नहीं वो अब किस हाल में होंगी, उस बिल्डिंग के पास से गुजरते हुए मैंने देखा कि बालकनी में कोई चेहरा नहीं नजर आया। दूसरे दिन पतिदेव को किसी काम से जाना था, तो मैंने कहा कि मुझे मिसेज मित्तल से मिलना है आप मुझे वहां छोड़ दीजिएगा और वापसी में ले लेना।
दोपहर के तीन बजे मैं मिसेज मित्तल के बारे में सोचती हुई उनके दरवाजे पर पहुंची और कालबेल बजाई। दरवाजा खुलने पर उदास और निढाल मिसेज मित्तल दिखाई दीं। मेरे नमस्कार पर जबरन मुस्कुराने की कोशिश करती हुईं बोलीं, अरे इतने साल बाद अचानक कहां से प्रकट हो गईं, फिर हमारी बातों का सिलसिला चल पड़ा। उनमें कोई बदलाव नहीं आया था। घर की हालत अब भी वैसी ही थी। मैंने पूछा कि आपकी यह हालत कैसे हुई, घर में कोई नहीं है क्या, कहने लगीं कि बेटा तंग आकर आखिरकार मुंबई चला गया, बेटी की शादी हो गई। मित्तल साहब दो साल से सर्वाइकल स्पोंडेलाइटिस से पीड़ित होकर घर में ही रहते हैं। बिजनेस खत्म हो गया, अब हुंडियों का कारोबार करते हैं। पूरे दिन बही खातों में घुसे रहते हैं। ना कोई दवा लेते हैं और ना ही एक्सरसाइज करते हैं। पहले से ज्यादा तुनकमिजाज हो गए हैं। अब इनके कारण घर छोड़कर कहीं जा भी नहीं सकती। ये घर मेरी कैद बन गया है।
मैंने पूछा कि दिन कैसे कटता होगा। बोलीं, खाना बनाकर इन्हें खिलाने के बाद इस खिड़की पर आकर बैठ जाती हूं। राह चलते लोगों को देखना, किताब, पत्रिकाएं पढना या पुराने एलबमों में तस्वीरें देखना, बस यही रह गया है। वो चाय के लिए उठने लगी तो मैंने ही मना कर दिया। इतनी देर में भी मित्तल साहब की मौजूदगी का अहसास नहीं हुआ तो पूछा कि क्या वो सो रहे हैं। दिन में क्या हमे तो रात में भी सोने के लिए गोलियां लेनी पड़ती हैं। मैंने पूछा कि क्या आपस में एक दूसरे की तकलीफ को लेकर बात भी नहीं करते, कहने लगीं, जिस आदमी को मेरी मानसिक तकलीफ का कभी खयाल नहीं आता वो शारीरिक तकलीफ के बारे में क्या पूछेगा, उसी वक्त मुझे नीचे गाड़ी का हार्न सुनाई दिया, ये मुझे लेने आ गए थे।
जाते वक्त मेरी नजर मिसेज मित्तल की खिड़की पर ही टिकी रहीं। जाली के पीछे वह छाया सी दिख रही थीं। मेरा मन गहरी उदासी से भर गया। इस नारी की सजा यात्रा कहां खत्म होगी, पत्नीत्व, मातृत्व कोई सुख नहीं। एक ही छत के नीचे तलाकशुदा जैसा जीवन। आखिर इसका कसूर क्या है।
कहानी अंश
वे क्षुब्ध स्वर में बोलीं, जिस तरह की जिंदगी मैं जी रही हूं, उसमें किसी भी तरह के संबंध में मेरी भागीदारी की तो गुंजाइश ही कहां है, उस वक्त मुझे अपनी स्थिति बाजारू औरत से भी गई गुजरी लगती है। उसमें उसकी मरजी तो शामिल रहती है, चाहे पैसे के लिए ही हो। मगर मैं, मुझे तो हर वक्त इनके साथ दो ध्रुवों की सी मानसिकता में जीना पड़ता है, लेकिन रात में सोते समय जब मरजी हो पति नाम का यह जीव मुझे अपनी लपेट में ले लेता है।
...
पुरुष द्वारा क्रिएट दर्दनाक परिस्थितियों को झेलती इस नारी की सजा यात्रा आखिर कहां जाकर खत्म होगी। उनकी दयनीय हालत और दर्दनाक परिस्थितियां मेरे संवेदनशील मन को यह सोवने पर विवश कर रही थीं कि क्या नारी जीवन इतनी बड़ी यातना भी हो सकता है, न पत्नीत्व का सुख है, ना मातृत्व की तुष्टि। उम्र के इस पड़ाव पर घर की रानी होने का गौरव महसूस करने की बजाय पति के साथ एक ही छत के नीचे तलाकशुदा-सा जीवन बिताने पर मजबूर इस स्त्री का आखिर कसूर क्या है।

रब्बो - रामकुमार ओझा की कहानी


राजस्थान के साहित्यिक इतिहास में रामकुमार ओझा एक ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने सृजन की शास्त्रीय शर्तों और परंपराओं को तोड़ते हुए अपनी अलग राह बनाई और कथा साहित्य में ऐसे किरदारों की रचना की जो आम होते हुए भी खास हो जाते हैं। रचना का वातावरण और लेखक की दृष्टि मिलकर ऐसे देशज पात्रों की रचना करते हैं, जो जीवन समर में संघर्ष करते हुए कभी हार नहीं मानते। प्रकृति और मानव को एक दूसरे से अंतर्ग्रथित कर देने वाले महान रचनाकार रामकुमार ओझा का जन्म 8 जुलाई, 1926 को हुआ। ग्यारह बरस की उम्र से शुरु हुआ ओझा जी के लेखन और प्रकाशन का सिलसिला 8 अक्टूबर, 2001 को उनके महाप्रयाण के साथ थमा। वे राजस्थान के उन गिने-चुने लेखकों में हैं, जिनकी रचनाएं ‘कल्पना और ‘विशाल भारत जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं।
ओझा हिंदी और राजस्थानी में समान रूप से लिखते थे और उनका ग्रामीण परिवेष और जनजीवन से बहुत गहरा रिश्‍ता था। दोनों भाषाओं में रामकुमार ओझा के कविता संग्रह, कहानी संग्रह और उपन्यास प्रकाशित हुए। अभी भी उनकी कई रचनाएं अप्रकाशित हैं। ओझा जी के विपुल कथा संसार में ‘रब्बो एक ऐसी कहानी है जो समाज की दोमुंही मानसिकता पर जबर्दस्त प्रहार करती है। अच्छे-भले लोग कैसे दूसरों को नापाक निगाहों से देखते हैं और खुद के दामन पर लगे दागों को नहीं देखते। ऐसे लोग हमारे आस-पास फैले पड़े हैं। प्रस्तुत है ऐसे ही लोगों को बेनकाब करती कहानी रब्बो का सार संक्षेप।
बकौल बुजुर्गान उस मोहल्ले में औबास यानी आवारा लौंडों की तादाद न के बराबर थी। शातिर लौंडियां तो थी ही नहीं। हालांकि कमसिन और बला की खूबसूरत लड़कियां स्कूल, कालेज, मंदिर, मजार पर जातीं और कुछ ज्यादा ही बनी-ठनी निकलतीं तो हंगामा मच जाता। आवारा लौंडे ताकते-झांकते, फिल्मी नगमों के टुकड़े उछालते और मजनूई अंदाज में मायूस हो जाते। लड़कियां चुपचाप यूं चली जातीं कि बुजुर्ग समझते लड़कियां शर्मसार हैं और चाहने वालों को लगे कि उनकी जानिब भी कोई जां-निसार है। हमउम्र लड़कियों में आपस में जलन होती अगर लौंडे किसी खास को ज्यादा तवज्जोह देते। एक दिन मोहल्ले के रास्तों से एक बिल्कुल जुदा किस्म की लड़की गुजरने लगी। सयानेपन में औरत बन चुकी इस लड़की के जिस्म में हाल ही में दिलकश उभार आया था और इसकी चाल बड़ी शातिर, लेकिन लिबास बेहद सादा था। उसके पांव जमीं को नहीं छूते, वो उड़ी-उड़ी जाती। लौंडों के दिलों पर छुरियां चली जातीं कि कोई चलचलाती आतिश है जो मोहल्ले की लड़कियों से जुदा है। उसे देख बुत बने रह जाते, ना मिसरे उछाल पाते ना आहें भर पाते। एक दाउद ही था जो मौके की तलाश में था।
मगर उस कुमकुमे को रोज-ब-रोज गुजरते देख, मोहल्ले के बुजुर्ग लोग होशियार हो गए, माएं बनीं खातूनें खबरदार हो गईं। यह शरीफों का मोहल्ला है, जहां दीनदार मुसलमान, नौकरीपेशा कायस्थ, अमृत छके सिख, कदीमी बाशिंदे हिंदू और होटलों का कारोबार करने वाले एंग्लो इंडियन रहते हैं। गरज कि यह सारे हिंदुस्तान के शरीफों का मोहल्ला है। यहां की मां, बेटियां, बहनें, बूवा-फूफियां सबकी साझी धरोहर है। बस बीवियां जुदा हैं। लड़कियां जाहिरा तौर पर आवारा नहीं हैं। लेकिन वे चाहतीं कि लौंडे उन्हें छेड़ें और वे नाराजगी जाहिर करें। उन्हें पता था कि उनके घर वाले जानते हैं कि वे कैसी लड़कियां हैं, लेकिन वे चुप रहते। वो इसलिए कि वालिदान जानते थे कि उनकी औलादें मजनूं के जात की थीं। मोहल्ले में दुश्‍मनियां छुपी हुई और मुरौवत जाहिर थी। सदर दरवाजे बंद रहते और खातूनों की तांक-झांक खिड़कियों की फांकों से चलती।
मगर प्रोफेसर इमतियाज का सदर दरवाजा हमेशा खुला रहता। मुहल्ला शाहीदान से रब्बो आती, सीधे दरवाजे में घुस जाती और फिर दरवाजा बंदा हो जाता। फिर शुरु होता तांक-झांक और सरगोशियों का सिलसिला। बुजुर्गों के मुताबिक रब्बो को हया नाम की चीज छू भी न गई थी। दिन ढले आती और आधी रात जाती। दिखावे की भी लोकलाज नहीं। नजर झुकाकर नहीं सीधी आंख में आंख डाले चलती जाती। कुंवारी जान इमतियाज और चढ़ती परवान रब्बो। तौबा! तौबा!
मोहल्ले की औरतों ने तो तौबा कर ली थी मगर मर्दों को पता नहीं था कि रब्बो कालेज में उनकी लड़कियों की हमक्लास है या कि बेहद खास है। वो नहीं जानते कि आए दिन कितनी लड़कियों को राह भटकने से बचाती है रब्बो। मगर बुजुर्गों को लगता कि वो बेहया है। मौलवी मीर मुश्‍ताक, सरदार सूबेदार सिंह और मुंशी गुलशन नंदा मोहल्ले की अमन-अस्मत कमेटी के सदर-वदर थे। सब एकराय थे कि इमतियाज को मोहल्ला छोड़ने का नोटिस दे दिया जाए और ना माने तो जबरन बेदखल कर दिया जाए।
एक दिन शाम इस कमेटी के बुजुर्ग पहुंचे इमतियाज के घर। रब्बो ने दरवाजा खोला तो एकबारगी तो सबकी नजरें अटक गईं। संभलकर भीतर गए तो इमतियाज का हुलिया देख सकते में आ गए। बदन पर सिर्फ तहमद लपेटे प्रोफेसर किताबों के बीच पड़ा था। बुजुर्गों ने उसके सलाम का जवाब देने के बजाय उस पर सवालों और नसीहतों की बौछार शुरु कर दी। इमतियाज चुप खड़ा रहा, लेकिन रब्बो ने एक सवाल को लपककर पकड़ लिया।
‘यह लड़की... यानी कि मैं... यहां हर रोज दिन ढले क्यों आती हूं, एक जवान लड़की क्यों आती होगी, बुजुर्ग इस हकीकत से बेखबर तो नहीं।
सब चुप। काफी देर बाद एक बुजुर्ग बोले, तो हम शक को अब सबूत मानें।
रब्बो जवाब देने के बजाय हंसने लगी। उसकी नजरें सबके लिए आइना बन गईं, जिसमें सबको अपने घर, आंगन, छज्जे-बालकनियां और वहां के नजारे दिखाई देने लगे। मौलवी मीर की लौंडिया बारजे में खड़ी किसी को इशारे कर ही थी कि उसके बगल वाले घर के छज्जे पर एक गुड़मुड़ कागज गिरा और इसके बदले में एक पुर्जा हवा में उड़ा।... सूबेदारसिंह का हमपेशा ठेकेदार उसे घर से निकलने के बाद दरवाजे पर सरदारनी से उसके बारे में पूछता है तो सरदारनी कहती है, ओए तू मर्द होके एना डरदा क्यूं हेगा... रेशमीलाल की औरत दाई से लड़की की लाज बचाने के लिए मिन्नतें कर रही है।... गुलशन की बेटी बड़ी दिलेर है। प्यार किया है कोई गुनाह नहीं।
उफ! बुजुर्गों ने एक दूसरे को टहोका लगाया, लड़की बेशर्म है, पता नहीं और क्या बोल जाए।
और वे बिना नोटिस दिए ही निकल लिए। इमतियाज ने रब्बो को टोका, तुमने सच्चाई क्यों नहीं बताई, खामख्वाह उलझ पड़ी।
रब्बो का दुनियादारी भरा जवाब था।
किताबी फलसफे से दुनिया का दस्तूर अलग होता है। कौन मानता है कि आप थीसिस में मेरी मदद करते हैं। नैतिकता की सच्चाई को अनैतिक लोग कभी नहीं मानते। उनके लिए संतोषजनक जवाब वही है, जिसे वे नंगई के साथ नकारते हैं। अब हम और वे हमराज हैं। वो अब मेरी आवाजाही को दरगुजर करेंगे क्योंकि वे जानते हैं कि हम भी गुनहगारों के हमजात हैं।
आधी रात जब वो वापस जा रही थी तो मौलवी बारजे पर टहल रहे थे। सूबेदारसिंह के अहाते में कुत्ते की जंजीर खुली हुई थी। मुंशी के घर तकरार चल रही थी और लाला की दुकान बंद थी। एंग्लो-इंडियन रेस्तरां में चहलपहल थी। खाली गली में अकेला दाउद बिजली के खंभे से चिपका खड़ा था। रब्बो को देख उसने कुछ मिसरे उछाले, रब्बो ने सहज भाव से लपका तो उसका हौसला बढ़ गया। चलती लड़कियों दुपट्टे लपकने का महारती दाउद उस पर झपट्टा मारता उससे पहले ही रब्बो ने अपना दुपट्टा उछाला और झटके के साथ उसकी गर्दन पर कस दिया। दाउद को रब्बो ने ललकारा तो बेचारे का पायजामा चिंदी-चिंदी हो गया और वो बड़ी मुश्किल से जान छुड़ाकर भागा। उसके शागिर्द पहले ही भाग चुके थे।
अगली शाम पूरा मोहल्ला मौन था। रब्बो को देख पनवाड़ी ने रेडियो की आवाज बंद कर दी। अंधेरे के बावजूद कुत्ते उस पर भौंके नहीं। कोई अंगुली नहीं उठी। खिड़कियों से किसी ने तांक-झांक नहीं की। आधी रात सबके माथों पर स्याह दाग थे। सब हम-गुनाह थे। किसी ने कोई हंगामा नहीं किया, क्योंकि रब्बो सबको सरेराह नंगा करने की जुर्रत संजोए थी।
कहानी अंश
वह चलती तो ऐसी लगती कि मुअत्तर और मुनव्वर लौ चली जाती है, मगर उसकी बू गुगुलू जैसी है। जाफरानी नहीं। उसके जिस्म की गोलाई में कशिश तो है, मगर उसकी उठान दहकते कुमकुमे जैसी है कि लौंडे उसे देख दम-ब-खुद व साकित हो इस्तादा खड़े रहें और यह मुतहरिक जलजला-सी गुजरती गयी। कोई उस पर फिल्मी-क्लास गानों के तोड़े ना उछाल पाया कि वे अल-शुरु में ही उससे कट गये। उससे किनारा कर गये। बस एक दाउद था कि मौके की तलाश में बना रहा।
ःःःःःःःःःःःःःः
किताबी फलसफे से दुनिया का दस्तूर जुदा होता है, इसलिए मैं उलझी प्रोफेसर साहब। कौन मानता है कि आप दयानतदारी के नाते थीसिस में मेरी इमदाद करते हैं। अख्लाक की हकीकत को बद-अख्लाक लोग कभी तस्लीम नहीं करते। उनके निकट तसल्लीबख्श उत्तर वही है जो वे खुद पूरी नंगई के साथ नकारते हैं। स्याहफाम लोग दूसरों को स्याही में डूबा देख कर नाराज नहीं खुश होते हैं। अब हम और वे हम-राज हैं। और वे तुमसे नाराज नहीं, खुश हैं। नंगों के हमाम में तुम भी उनमें से एक हो। वे जरा पर्दानशीनी के तलबगार जरूर हैं। मेरी आवाजाही को अब वे दरगुजर करेंगे, क्योंकि मेरे जवाब ने उनको तस्कीन दी है कि हम भी गुनहगारों के हमजात हैं।
रामकुमार ओझा
प्रकाशित कृतियां
कविता संग्रह: निशीथ
उपन्यास- रावराजा, अश्‍वत्थामा
कहानी संग्रह-करवट, सूरज अभी मरा नहीं, सिराजी तथा अन्य कहानियां, आदमी वहशी हो जएगा, तथा राजस्‍थानी में परकरती-पुरुष री कहाणियां।

Sunday 12 July, 2009

सभी वासनाएं दुष्ट नहीं होतीं


समलैंगिकता को लेकर चल रही तमाम बहसों में इस बात की चर्चा नहीं हो रही कि साहित्य, कला, संस्कृति और दर्शन से लेकर विभिन्न ज्ञान अनुशासनों में समलैंगिक संबंधों को बहुत सामान्य ढंग से लिया जाता रहा है। और इसका इतिहास कोई दो-चार सौ नहीं हजारों साल पुराना है। प्राचीन यूनान में पुरूषों के बीच समलैंगिक संबंध बहुत ज्यादा होते थे। महान उपन्‍यासकार ई.एम. फोर्स्टर का लिखा प्रसिद्ध उपन्यास ‘मॉरिस’ उनकी मृत्यु के बाद जब 1978 में प्रकाशित हुआ तब पश्चिमी जगत को पता चला कि जिस संबंध को वे लोग दुष्कर्म मानते हैं वो उनके पथप्रदर्शक प्राचीन यूनान में अत्यंत सामान्य संबंध था। इस उपन्यास पर इसी नाम से 1987 में एक फिल्म भी बनी थी जिसे जेम्सं आइवरी ने निर्देशित किया था। सिकंदर और नेपोलियन की सेना में समलैंगिक संबंध सहज थे। आज भी दुनिया की प्राय: सभी सेनाओं में समलैंगिक संबंध सामान्यं माने जाते हैं। इसकी वजह साफ तौर पर लंबे समय तक स्त्री से दूर रहना है। कई देशों की सेनाओं और दूसरी नौकरियों में समलैंगिकों को सामान्य व्यक्ति की तरह सभी अधिकार मिले हुए हैं।

इस दुनिया में अनेक महानतम लेखक, कलाकार और दार्शनिक ऐसे हुए हैं जो समलैंगिक थे। मोनालिसा के महान चित्रकार और शल्य चिकित्सक लियोनार्दो विंसी, महान दार्शनिक सुकरात, महान चित्रकार माइकल एंजिलो, जॉन ऑव आर्क, अरस्तू, जूलियस सीजर, वर्जीनिया वुल्फ, महान संगीतकार चायकोवस्की, शेक्सपीयर, हेंस क्रिश्चियन एंडरसन, लार्ड बायरन, सिकंदर महान, अब्राहम लिंकन, नर्सिंग आंदोलन की प्रणेता फलोरेंस नाइटेंगल और अनेक महान लोगों के बारे में जानकारी मिलती है कि ये सब कम या अधिक मात्रा में समलैंगिक थे। इन महान लोगों के काम से दुनिया आज भी अभिभूत है तो इसका सीधा सा मतलब है कि यौन वृत्ति का प्रतिभा से कोई लेना देना नहीं है। हम यहां उदाहरण के लिए सिर्फ दो महान लोगों की चर्चा करेंगे जो समलैंगिक होते हुए भी महान काम करके गए।

पहले चर्चा माइकल एंजिलो की। 6 मार्च 1475 को इटली में जन्में इस महान कलाकार को अनेक विधाओं में महारत हासिल थी। वो कवि, चित्रकार, मूर्तिकार, वास्तुकार और इंजीनियर था। लियोनार्दो विंसी का समकालीन यह महान कलाकार यूरोप में पुनर्जागरण का नायक था। मात्र 24 साल की उम्र में उसने अपनी महान कलाकृति ‘पिएता’ रच दी थी, जिसमें सूली से उतारने के बाद ईसा मसीह अपनी मां मेरी की गोद में लेटे हुए हैं। माइकल एंजिलो को रोम के लगातार सात पोप, कई गिरजाघर और गुंबद बनाने का काम देते रहे और उसने दुनिया की अनुपम कलाकृतियां रचीं जो आज भी मानवीय सभ्यता और कला-संस्कृति की बेशकीमती धरोहर है। उसके रचे महान मूर्तिशिल्प ‘स्टेच्यू ऑव डेविड’ में आप उसकी कला का अद्भुत सौंदर्य ही नहीं वरन उसकी समलैंगिक छवि भी देख सकते हैं। सिस्टीन चैपल की छत पर बने महान चित्रों में ‘क्रिएशन ऑव एडम’ में माइकल एंजिलो की समलैंगिक मानसिकता को बहुत खूबसूरती के साथ देखा जा सकता है।

बीसवीं शताब्दी में जिन लेखिकाओं ने अपने लेखन से जबर्दस्त तहलका मचाया और साहित्य की दुनिया में नई राह बनाई उनमें वर्जीनिया वुल्‍फ का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। 1882 में लंदन में जन्मी इस महान लेखिका के साथ उसके सौतेले भाइयों ने बचपन में इस कदर दुराचार किया कि वो जिंदगी भर उन भयावह क्षणों को नहीं भूल पाई। तभी तो वो इतना कुछ लिख पाई जिसे हम आज नारीवादी लेखन कहते हैं। यह जानना भी कई बार कितना भयानक होता है कि इस विचार का जन्म कितनी अंतहीन यातनाओं से गुजरने के बाद हुआ है। वुल्फ की त्रासदी यह थी कि वो अकेली नहीं बल्कि उसकी बहनें भी भाइयों की कमसिन वासना का शिकार हुईं। वर्जीनिया ने शादी की किंतु कभी भी पति के साथ सामान्य स्त्री की तरह दैहिक आनंद के लिहाज से खुश नहीं रही। जिंदगी में उसकी बड़ी उम्र की महिलाएं गहरी मित्र रहीं। कुछ के साथ वर्जीनिया के शारीरिक संबंध भी रहे। यौन संबंधों के लिहाज से वुल्फ बहुत आजाद खयाल महिला थी। उसकी कहानियों में आप तत्कालीन उच्‍चमध्य्वर्गीय अंग्रेज समाज के भीतर व्याप्त दोमुही मानसिकता को साफ देख सकते हैं जिसमें स्त्री की हैसियत सजावटी गुडि्या से अधिक नहीं है। वर्जीनिया वुल्फ ने अपने उपन्यास द वॉयेज आउट, ऑरलैंडो और बिटविन द एक्ट्स में सेक्सु और पात्रों की मानसिक उथलपुथल का गजब का चित्रण है।
पश्चिमी जगत में ही नहीं पूर्वी जगत में भी यह आम बात रही है। हम सब जानते हैं लेकिन नैतिकता की दुहाई देकर इसे स्वीकारने से बचते हैं। धर्म के झण्डाबरदार लोग मानवीय संबंधों को हमेशा से ही धार्मिक कानून के दायरे में लाने की कोशिेशें करते हैं। याद कीजिए मीरा नायर की फिल्म ‘फायर’ के बाद मचा बवाल, जिसमें देवरानी-जेठानी के समलैंगिक संबंधों को बताया गया था। भारत की बात बाद में करेंगे, पहले चीन की चर्चा करते हैं, जहां प्राचीन काल से ही यानी तकरीबन 2600 साल पहले से साहित्य में समलैंगिक संबंधों को लेकर लिखा जाता रहा है। बाओयू के उपन्यास ‘ड्रीम ऑव रेड चेंबर’ से लेकर कैनेथ पाई के ‘क्रिस्टल बॉयज़’ तक चीनी साहित्य में समलैंगिक संबंधों की एक लंबी परंपरा मिलती है।


भारतीय उपमहाद्वीप में उर्दू, हिंदी, अंग्रेजी ही क्या लगभग सभी भाषाओं के साहित्य_ में ही समलैंगिक संबंधों की चर्चा किसी ना किसी रूप में देखने को मिलती है। हालांकि लेखक इसे स्वींकार नहीं करेंगे, लेकिन यह भी सच्चाई है कि अनेक लेखकों में समलैंगिक संबंधों की प्रवृत्ति देखने को मिलती है। अंग्रेजी के कवि अशोक राव अकेले लेखक हैं जो बरसों से खुद को गर्व से समलैंगिक कहते आए हैं और समलैंगिकों के अधिकारों के लिए संघर्ष भी करते रहे हैं। इधर चल रही बहस में एक ब्लांगर ने उर्दू शायरी से चुनकर कई शेर उद्ध्रत किये हैं जिनसे पता चलता है कि रचनाकार को समलैंगिक कहा जा सकता है। हाफिज फारसी के बड़े शायर थे, उनका यह शेर देखिए,

गर आन तुर्क शीराजी बे-दस्तत आरद दिल-ए-मारा
बा खाल हिंदोश बख्श म समरकंद ओ बुखारा

अर्थात अगर यह तुर्क लड़का मेरे दिल की पुकार सुन ले तो इसके माथे पर लगे मस्से के लिए मैं समरकंद और बुखारा कुर्बान कर दूं।

अब महान शायर मीर का यह बयान देखिए,

तुर्क बच्चे से इश्क किया था रेख्ते मैंने क्या क्या कहे
रफता रफता हिंदुस्तान से शेर मेरा ईरान गया
या
मीर क्या सादे नैन उसके बीमार हुए जिसके सबब
उसी अत्तार के लौंडे से दवा लेते हैं

समकालीन उर्दू कविता में इफतिखार नसीम ‘इफती’ एकमात्र शायर हैं जो खुद के समलैंगिक होने की बात स्वीकार करते हैं। अब आप ख्वाजा हैदर अली आतिश का यह शेर देखिए,
जुलेखा को दिखाए आसमान तस्वीर युसूफ की
ये दिल दीवाना है जिसका परी-पैकर है वो लड़का

उर्दू शायरी में लोग दबी जुबान से समलैंगिक संबंधों की बात स्वीकार करते हैं। हिंदी में अभी तक ऐसा साहसी लेखक कोई नहीं सामने आया, अलबत्ता मनोहर श्याम जोशी ने अपने उपन्यासों में समलैंगिक संबंधों की खुली चर्चा की है, जिसे खूब दुत्कारा गया है। लेकिन साहित्य के अलावा संगीत और कला संस्कृति की दुनिया में समलैंगिक संबंध बहुत आम हैं। दबे छिपे ढंग से लोग इनकी चर्चा करते हैं, लकिन खुलकर स्वींकार नहीं करते। क्यों कि हमारे यहां ऐसे संबंधों को अभी भी अच्छी नजर से नहीं देखा जाता।

वयस्क व्यक्ति एक आत्मचेतस मनुष्य होता है और न्यायालय ने इसी आधार पर आपसी सहमति से समलैंगिक संबंधों को जायज और कानूनी माना है। साहित्य्, कला और संस्कृति की दुनिया के लोग सामान्य से अलग होते हैं, समाज में उनकी अलग प्रतिष्ठा होती है। वे व्यक्तिगत स्वतंत्रता को ज्यादा अहमियत देते हैं, इसलिए यौन संबंधों में भी वे अगर सामान्य से अलग होते हैं तो उन्हें ऐसा करने की स्वंतंत्रता होती है। इस प्रकार के संबंधों को सहज लिया जाना चाहिए, क्योंकि महज यौन साथी चयन की प्रवृत्ति या प्राथमिकता के आधार पर आप किसी की प्रतिभा का आकलन नहीं कर सकते और न ही किसी को हेय या प्रेय कह सकते हैं। आधी सदी पहले ही विज्ञान यह मान चुका है कि समलैंगिक होने से कोई व्यक्ति दुराचारी या अनैतिक या मानसिक रूप से बीमार नहीं होता, फिर हमें विज्ञान की बात माननी चाहिए कि धर्म के कठमुल्लों की जो खुद कई किस्म के कुकर्मों में आए दिन लिप्त पाए जाते हैं। किसी भी व्यक्ति को जैसे दोस्त चुनने की आजादी है वो रहनी चाहिए, अब यह उन पर निर्भर है कि वो इस दोस्ती को कहां तक ले जाते हैं। कात्यायनी ने एक कविता में लिखा है, ‘सभी वासनाएं दुष्ट नहीं होतीं।‘

Sunday 5 July, 2009

चश्मदीद मुज़रिम : हसन जमाल की कहानी


राजस्थान के जिन रचनाकारों को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचाना जाता है उनमे हसन जमाल सबसे अलग दिखाई देते हैं। वे अपनी समर्थ लेखनी और साफगोई के चलते अक्सर विवादों में भी छाए रहते हैं। लेकिन एक कथाकार के नाते उनकी रचनाएं पाठकों को बहुत कुछ सोचने-समझने के लिए विवश करती हैं। 21अगस्त, 1942 को जोधपुर में जन्में हसन जमाल पिछले पांच 21 दशकों से अर्थात किशोरावस्था से ही साहित्य-सृजन की दुनिया में सक्रिय हैं। अब तक उनकी नौ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और प्रदेश की हिंदी एवं उर्दू अकादमियों से भी उन्हें सम्मानित किया जा चुका है। पिछले डेढ़ दशक से वे उर्दू-हिंदी की गंगा-जमनी तहजीब की एकमात्र पत्रिका ‘शेष’ का संपादन कर रहे हैं, जिसे बहुत सम्मान के साथ लेखक-पाठकों का प्यार हासिल हुआ है। इस पत्रिका के अबतक 53 अंक निकल चुके हैं। हसन जमाल बहुत अच्छे अनुवादक भी हैं और उनके किये अनुवाद बेहद पसंद कियेगए हैं। उर्दू और हिंदी पर समान अधिकार होने के कारण हसन जमाल की कहानियों में भाषा के लिहाज से एकखास किस्म की रवानी मिलती है जो पाठक को ताजगी का अहसास कराती है। उनकी कहानियों में ‘ चश्मदीद मुजरिम’ एक अलग तरह की कहानी है, जो पहली बार ‘इण्डिया टुडे’ में छपने के बाद खासी चर्चित हुई और फिरइसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। किसी अपराध का गवाह होना कितना कष्टकारी होता है और ऐसे व्यक्ति कोकितनी मानसिक यंत्रणाओं से गुजरना पड़ता है, इसका जीवंत दस्तावेज है ‘ चश्मदीद मुजरिम’। प्रस्तुत है कहानीका सार-संक्षेप।

मैं कोई बहुत शरीफ आदमी नही हूं। इससे पहले भी मैंने लड़कियों को आदिम लिबास में देखा है, लेकिन हर इंसानकी तरह मैंने भी वैसा दिखने की कोशिश की है, जैसा कि कोई सच में होता नहीं है। ‘बनने’ और ‘होने’ की इसी कशमकश में जिंदगी गुजरती जाती है। इसी ‘होने’ की वजह से मेरा मौका-ए-वारदात पर मौजूद होना संभव हुआ।वे छह थे, मैं सातवां हो सकता था, लेकिन मुझे लगा यह गलत हो रहा है। आपके लिहाज से मैं डरपोक या कायर होसकता हूं। डरपोक नैतिकता की दुहाई ज्यादा देते हैं। लेकिन मैं बुजदिल नहीं था, क्योंकि ऐसे खेल में पहले भीशरीक हो चुका था। इसीलिए जब रणधीर ने एक चिड़िया फंसने की बात कह कर बुलाया तो बहन के सवालियाचेहरे पर निगाह डालने के बाद चुपचाप जीना उतर आया। पता नहीं क्यूं लगा जैसे बहन मेरे साथ हास्टल चली आईथी।

सुनसान हास्टल में वो छह यार थे। उस कमरे का दरवाजा भिड़ा था, जिसे हल्के से धकेलकर मैंने देखा, नग्नलड़की की परकटी चिड़िया की तरह चीखें निकल रही थीं। मनोज उसे दबोचे हुए था। मैंने एक नजर देख दरवाजाबंद कर दिया। आज पहली बार मेरे साथ ऐसा हुआ, मुझे लगा यह गलत हो रहा है। जैसे कोई चोर सोचे कि चोरी करना ठीक नहीं है। उस भयंकर उठापटक में एकबारगी मेरी निगाहें उस लड़की से मिलीं तो सिहर गया था मैं। जैसेमेरी छोटी बहन क्लिक हो गई, वह मेरे साथ ही थी जैसे। ऐसा कभी नहीं हुआ, नशे और जोश में तो कभी नहीं।

बगल वाले कमरे का अधखुला दरवाजा पार कर मैं भीतर गया तो सबकी बांछें खिल गईं। कांच के छोटे-छोटेगिलास थामे वे घबराए-से बैठे थे। रणधीर ने मेरे लिए जगह बनाते हुए कहा, ‘आ बैठ, मन्नू ने देर लगा दी, वेटकरना पड़ेगा। पंडत, एक पेग इसके लिए भी बना, ताकि जिगरा खुल जाए।’ खिड़की में रखी बोतल आधी खाली थी, पास में कंडोम का पैकेट पड़ा था। एड्स का भय। हम डरे, सहमे लोग बड़ों की नजरें बचा कर जिंदगी का मजा़ चुरानेको कामयाबी और एडवेंचर मानते थे। भविष्य में तो अंधेरा ही लिखा था।

मैंने पेग नहीं लिया। इससे पहले ये दोस्त मुझे बेगाने ना लगे। पहली बार मुझे लगा मैं गलत जगह आ गया हूं औरमैं बिना कुछ कहे बाहर निकल आया। रात मुझे अफसोस हुआ कि मैंने बहती गंगा में हाथ क्यों नहीं धोया, खुद कोमैंने खूब धिक्कारा। सुबह के अखबार सामूहिक बलात्कार की खबरों से भरे थे। मैं जूड़ी बुखार में बेसुध था और उसीहालत में पुलिस मुझे ले गई।

लड़की ने बताया कि वे सात थे। वो छह पता नहीं कहां गायब हुए और मैं बिना मशक्कत के पुलिस के हाथ लगगया। पहली बार थर्ड डिग्री से वास्ता पड़ा तो मेरी चूलें हिल गईं, होश फाख्ता हो गए। मेरे तमाम इन्कार के बावजूदमैं कानूनन मुजरिम था, क्योंकि मौका-ए-वारदात पर मौजूद था। दस लाख की आबादी में से मैं ही क्यों मौजूद था, दूसरे तमाम लड़के, चौकीदार, वार्डन और प्रिंसिपल क्यों मौजूद नहीं थे? अब तो अदालत तय करेगी कि मैं मुजरिमथा कि बेकसूर? कानून की सारी जंग झूठ के पुलिंदों में से सच्चाई निकालने में जाया हो जाती है और जो अंत मेंनिकल कर आता है, वो कागज का सच होता है बस।

मैं एक चश्मदीद मुजरिम हूं और मुझे कानून के बारे में यह सब कहने का हक नहीं है। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट कीतमाम हिदायतों के बावजूद मुझे उन गुफाओं से गुजरना पड़ा, जहां हरे पन्नों की हवा के बिना इंसान दम घुटने सेमर जाए। उस अंधी गुफा से मुझे पता नहीं किसने बचाया। उस लड़की ने मुझे सातवें के तौर पर पहचान लिया औरमेरी बेगुनाही की गवाही भी दे दी। लेकिन ‘आईओ’ के सामने जो सवाल किया उसका जवाब मेरे पास आज भी नहींहै... ‘इसने मुझे बचाया क्यों नहीं?’

मैं उससे यह तो नहीं कह सकता था कि मैं भी वहां राल टपकाते चला गया था। आज अपने बचाव में खुद कोइन्नोसेंट’ कहना पड़ रहा है, लेकिन मेरा दिल जानता है, मैं कितना इन्नोसेंट था। वो छह थे और मैं बाहरी आदमीथा। ‘ चौकीदार थड़ी पर बीड़ी फूंक रहा था, वार्डन गर्ल फ्रेंड के साथ पिकनिक पर था और प्रिंसिपल राजनीति में मशगूल। मैं क्या कर सकता था। रोज हजारों जुर्म हमारी आंखों के सामने होते हैं, लेकिन हम क्या कर पाते हैं? खैरबाद में पता चला कि रणधीर से लड़की के संबंध पहले से थे। उस दिन कुछ ज्यादती हो गई। दोस्तों का भला करनेके चक्कर में उसकी सारी स्टूडेंट पालिटिक्स डूब गई।

पुलिस उनकी तलाश में मुझे उन सब जगहों पर ले गई जहां वे हो सकते थे। मगर वे सब गायब थे। उनके बस नामरह गए थे। एक हंगामा मचा था और सरकार तथा पुलिस की नाक का सवाल था कि एक भी मुजरिम गिरफ्त मेंनहीं आया। सबसे पहले बंटी पकड़ा गया, फिर मनोज। लगा बाकी भी जल्द पकड़े जाएंगे। अखबारों में इस कांड कीखबरें सिमटती गईं। पुलिस की मिली भगत का रोना रोया गया। रणधीर किसी नेताजी का साला था। उनके फार्महाउस पर छापा मारने की हिम्मत कौन करे? रणधीर के अलावा बाकी तीन भी जल्दी पकड़े गये। पुलिस की जांच में आखिर मामला यह बना कि वे दरअसल पांच ही थे, लड़की का गणित कमजोर था।

चार्जशीट पेश होने के बाद मेरे सर पर और बड़ी बलाएं आ गईं। मेरा चश्मदीद गवाह होना ही सबसे बड़ा जुर्मसाबित हुआ। दोस्त अब दुश्मन हो गए थे। इतना दहशतजदा तो मैं पुलिस हिरासत में भी नहीं था। मुझे धमकियांमिलने लगीं कि मैं दोस्तों के खिलाफ कुछ बोला तो मेरा क्या हश्र होगा। मैं घबराहट में इस-उस रिश्तेदार के यहांपनाह लेने लगा। मेरी जिंदगी अब दोस्तों के रहमोकरम पर थी। पता नहीं कुत्ते-बिल्ली का यह खेल कब तकचलेगा।

ट्रायल शुरु हुई है, लडकी को भरोसा है कि मेरे बयान से उसका केस मजबूत होगा और गुनहगारों को सजा मिलेगी।लेकिन मेरी दहशत रोज बढती जा रही है। मैं खौफजदा हूं और चारों तरफ अंधेरा छाया है। क्या मेरा वहां मौजूदहोना ही सबसे बड़ा जुर्म है? मेरी राय तो यही है कि आप चश्मदीद होने से बचिए, वर्ना आप भी मेरी तरह मुसीबतमें पड़ जाएंगे।

कहानी अंश

उस भयंकर उठापटक में एक पल को मेरी निगाह उस लड़की की आंखों पर जा टिकी थी। मैं ठीक से कह नहींसकता कि उसमें किसी तरह की इल्तिजा थी या मुझे भी मनोज का एक साथी समझकर नफरत से उसने मुझे देखाथा। इतना जरूर याद है कि उससे निगाहें मिलते ही मैं सिहर गया था। जाने क्यों, उस वक्त मेरे सामने छोटी बहनक्लिक हो गई थी। मैं कह चुका हूं, वह मेरे साथ ही थी। अमूमन ऐसा नहीं होता, खास तौर से नशे और जोश कीहालत में।

.....

मुलजिमान के खिलाफ चार्जशीट पेश होने के बाद मैंने यह समझ लिया कि बला टली। लेकिन यह मेरीखामखयाली थी। अब मेरे सर पर ज्यादा बड़ी बलाएं मंडरा रही थीं। मैं चश्मदीद गवाह था और यही मेरा सबसे बड़ाजुर्म साबित हुआ। कल तक जो मेरे दोस्त थे, आज वे दुश्मनों से भी बुरा बरताव कर रहे थे। वे घात में थे और मैंबचाव में। मैं इतना दहशतजदा तो पुलिस कस्टडी में भी न था।

लेखक परिचय

जन्मः 21 अगस्त, 1942 जोधपुर

प्रकाशित कृतियां

बाल-साहित्यः अनाथ, बालिश्त भर दर्द, दीनू की दुनिया

कहानी-संग्रहः कुरान की कहानियां, अंश-अंश-दंश, आबगीना, तीसरा सफर, ये फैसला किसका था और चश्मदीद मुजरिम

पुरस्कार-सम्मानः ‘अनाथ’ को बाल साहित्य प्रतियोगिता में ज्ञानभारती पुरस्कार, लखनउ।

अंश-अंश-दंश’ को राजस्थान ग्रेजुएट सर्विस एसोसियेशन , मुंबई द्वारा सम्मान।

‘तीसरा सफर’ को राज. साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा रांगेय राघव कथा पुरस्कार।

राज. उर्दू अकादमी और राज. वक्फ बोर्ड द्वारा सम्मानित।