Friday 26 December, 2008

राजस्थान में शराब बिक्री पर रोक...

अशोक गहलोत कुछ कठोर फैसलों के लिए शुरू से ही जाने जाते हैं. दूसरी दफा मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने सबसे पहले 8 पी।एम. नो सी.एम. की परिपाटी को बंद किया. अशोक जी के सारे फैसले लगभग रात में होते हैं. इस बार भी यही हुआ. एक अखबार ने पहले तो अपने पत्रकार कर्मचारियों की विश्व-व्यापी मंदी के चलते छंटनी की और एक अभियान चला दिया॥नशीले गठजोड़ के विरुद्ध... अशोक जी गांधीवादी हैं.. तुंरत हरकत में आए और ऐलान कर दिया राज्य में रात आठ बजे बाद शराब नही बिकेगी... अखबार वालों की चापलूसी की दाद देनी चाहिए... जब वसुंधरा राजे थी तो यह उसके कसीदे गाते थे..अब अशोक जी के गा रहे हैं...और ख़ुद अपनी ही पीठ थोक रहे हैं..अजीब दास्तान है यह..
पूरे शहर में अतिक्रमण को लेकर ख़बर बेचने वाला सबसे बड़ा अखबार अपने ही दफ्तर के सामने पार्किंग के नाम पर अतिक्रमण करता है...मजा तो तब आए जब यह अतिक्रमण ध्वस्त हो...अशोक जी शायद इस पर थोडी तवज्जोह देंगे...कि अपनी विशेष हैसियत के कारण कोई खामख्वाह सरकारी ज़मीन पर बेवजह अतिक्रमण ना करे।
अजीब बात है कि जनता के सवालों पे लड़ने वाले ख़ुद पे सवाल खड़े होने से बौखला जाते हैं॥
इस बार भी येही होगा...खाकसार से जुड़ी खबरें प्रतिबंधित कर दी जायेंगी... कुछ दरबारी पत्रकार इस पर मशविरा देंगे...और अपने ही साथी पत्रकार को दरवाजा दिखाने का मातम मनाएंगे.. कुछ बेहद खुश भी होंगे कि हे अल्लाह, हे इश्वर मेरा पत्ता नहीं कटा॥
हम जानते हैं कि मंदी कि मार बड़े अखबारों पर नहीं पड़ती॥ लेकिन मालिक को तो जो गुर्गे बता दें , सिखा दें वही सब कुछ है...


Thursday 27 November, 2008

फीका के कार्टून

आज राजस्थान पत्रिका के कार्टूनिस्ट, भाई अभिषेक के ब्लॉग पर पाकिस्तान के मशहूर कार्टूनिस्ट फीका को देखा तो फीका के वो कार्टून याद आ गए जिनकी तस्वीरें मैं कराची से 2005 में अपने साथ लाया था। दोस्तों के लिए पेश है कुछ कार्टून फीका के... यहाँ आप हम दोनों को भी देख सकते हैं। वक्त आधी रात के करीब। यहाँ कुछ देर और गला तर करने के बाद हम कराची प्रेस क्लब में खाना खाने गए थे। जहाँ फीका के जुबानी नश्तरों के आगे सब खामोश थे...



















इस चुनावी दौर में

चुनावों का भी अपना मजा है, किसी को छेड़ के देख लीजिये, भाजपाई हो या कांग्रेसी या कोई भी. ज़रा उनके प्रतिकूल बोल के देखें आपके कपड़े फाड़ देंगे आजकल. एक दिन हमने शर्माजी से मजे लेने के लिए चर्चा छेड़ दी कि इस बार तो प्रदेश में रानी-राज का खत्म हो गया. वो पहले संभले फ़िर बोले आप लोग अच्छे लोगों को राज नही करने देना चाहते. एक मनमौजी ने कहा, शर्मा जी हम आपको सत्ता सौंप देंगे लेकिन इनको नही.शर्मा जी बोले मेरे में और उन में क्या फर्क है?दिलजले ने कहा, शर्मा जी हम आपकी इज्ज़त करते हैं लेकिन अगर आप ग़लत करो तो उतार भी सकते हैं. लेकिन जिनकी नही करते उनको क्यों और कब तक सहन करें? शर्मा जी समझ गए यह छोकरा तो पूरी तरह से 'राज बदल कर दम लेगा'।

और सुच बात तो यह है दोस्तों कि पूरे प्रदेश में सामंतशाही के ख़िलाफ़ एक ज़बरदस्त माहौल है जिसे समझ पाना चुनावी पंडितों के बस की बात नही है। जो भी हो असली फ़ैसला तो 8 दिसम्बर को ही होगा। और उस दिन शायद राजपूताने में मराठा-राज का खात्मा हो जायेगा.

Saturday 9 August, 2008

कि तबियत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी...

काफ़ी दिनों से सोच रहा था कि किसी तरह से ज़र्दा-गुटखा खाने कि लत छूट जाए। लेकिन कोई रास्ता नही दिख रहा था। आखिरकार एक दिन ख़बर मिली कि हमारे सहकर्मी जैन साहेब सेवा निवृति के कुछ महीने बाद ही कैंसर हॉस्पिटल पहुँच गए। जैन साहेब को मैं बीते २२ बरसों से पान-ज़र्दा-गुटखा खाते देखते आया हूँ। उनकी मस्तमौला तबियत पे कैंसर का कहर टूटा, यह ख़बर सुनकर मुझे लगा कि यार अब भी नही तो कब सुधरोगे? फ़िर किसी वज़ह से यानी कि नींद पूरी न होने और हाजमा ख़राब रहने के कारण, एक दिन रक्त चाप बढ़ गया। डॉक्टर ने हमेशा कि तरह दवा दी और कहा कि अब यह ज़र्दा-गुटखा छोड़ दो. मैंने कहा आजकल रजनीगंधा-तुलसी तो बंद कर दिया है, सादा पान मसाला खाता हूँ. डॉक्टर ने सब कुछ छोड़ने कि हिदायत दी. मजाक में डॉक्टर ने कहा कि कवि महाराज, क्या आप उस दिन का इंतज़ार कर रहे हैं, जब कोई ह्रदय रोग विशेषज्ञ या कैंसर का इलाज करने वाला डॉक्टर कहेगा तभी आप यह सब छोडेंगे? दोस्तों बात सीधी दिल को लग गयी, और बन्दे ने तय कर लिया कि किश्तों में सब छोड़ देंगे. शुरू में थोड़ा कष्ट हुआ, लेकिन आखिरकार सब छूट गया.
आजकल बड़ा मजा आ रहा है। मुंह का स्वाद अपने मौलिक स्वरुप में लौट आया है. जायके याद आ रहे हैं. यादों की इस बारिश में पुरानी गज़लें याद आ रही हैं.

मेहँदी हसन साहेब की पुरसुकून आवाज़ में गाई गई ग़ज़ल का शेर तबियत को लेकर याद आ रहा है।

ले गया छीन के कौन तेरा सब्र-ओ-करार
कि तबियत मेरी माइल कभी ऐसी तो ना थी

Monday 23 June, 2008

जयपुर की पत्रकारिता में नया चलन

जयपुर शहर की पत्रकारिता में इन दिनों एक नया चलन देखने में आया है। मुख्य धारा के बड़े अखबारों ने शहर की खबरों से साहित्य कला और संस्कृति की खबरों का स्थान बेहद सीमित कर दिया है। शहर में यह हाल सिर्फ़ हिन्दी साहित्य और गंभीर सांस्कृतिक आयोजनों की रिपोर्टिंग में देखा जा सकता है। अंग्रेज़ी वालों के लिए, मुम्बैया, सेलेब्रिटी, कारपोरेट पूँजी से पोषित आयोजनों में इन अखबारों की पत्रकारिता यूँ लगाती है जैसे साहित्य-संस्कृति का सच्चा हाल इन दो कौडी के आयोजनों की तफसीली रिपोर्टिंग से ही सामने आएगा। कितना बुरा लगता है यह देखकर कि अपने ही साथी भाई बन्धु कलमकार कि मौत तक को छापने में इन अखबारों को तकलीफ होती है। आप हिन्दी साहित्य का राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय आयोजन करके देख लें उसकी रिपोर्टिंग ऐसे होगी जैसे गली-मुहल्ले के किसी मन्दिर में होने वाले पौष बड़ों के कार्यक्रम से भी उसका स्तर बहुत छोटा हो। जयपुर के सांस्कृतिक संवाददाता अपने आप को किसी सिद्ध ज्ञानी-कलामनीशी से कम नही समझते हैं। खैर वो बेचारे तो कम वेतन वाले पार्ट टाइम नौसिखिये पत्रकार हैं उन्हें क्यों दोष दें।
असल दोष तो उन लोगों का है जो ऊंचे ओहदों पे बैठे यह तय करते हैं कि अखबार में किस ख़बर को क्या महत्व मिलना चाहिए? शायद उन लोगों की नज़र में धार्मिक आयोजन ही सांस्कृतिक पत्रकारिता का पर्याय है, तभी तो जयपुर के अखबारों में आप धार्मिक खबरों से लिथडा हुआ, एक किस्म की साम्प्रदायिक बदबू से बजबजाता हुआ, अज्ञात कुलशील-अज्ञानी-महिला विरोधी-ढोंगी और प्रपंची साधू संतों के चूतिया किस्म के प्रवचनों से आच्छादित कूडेदान लायक पूरे का पूरा पेज रोजाना पढ़ सकते हैं। एक भेद की बात यह भी है कि अनेक मंदिरों के महंत सांस्कृतिक संवाददाताओं को प्रसाद के नाम पर खबरें छपवाने के लिए मोटे लिफाफे देते हैं, शायद इसलिए भी शहर की सांस्कृतिक पत्रकारिता में यह नया चलन आम हो रहा है। एक शानदार सांस्कृतिक परम्परा की विरासत वाला खूबसूरत शहर अखबारों में संस्कृति के नाम पर अवैज्ञानिक साम्प्रदायिकता की हद तक धार्मिक खबरों से लहूलुहान हो रहा है।
एक वक्त था जब साहित्यकार को पत्रकार का बड़ा भाई कहा जाता था, वो इसलिए कि लेखक भाषा का नवाचार सिखाता है, लेकिन जयपुर शहर के अखबारों ने उन दो भाइयों को हिन्दी सिनेमा के डाइरेक्टर प्रोड्यूसर कि तर्ज़ पर बचपन में ही बिछुड़ा दिया है। पता नहीं इस पटकथा में इन दो भाइयों का मिलन लिखा भी है कि नहीं, कोई नहीं जानता। शहर के कलाकार-कलमकार पत्रकारिता में आए इस नए चलन से दुखी हैं लेकिन क्या किया जाए?
जिस शहर में अख़बार के दफ्तर में सम्पादक अपने पत्रकार को अवज्ञा के कारण मुर्गा बना दे उस शहर की पत्रकारिता में संस्कृति की हालत सहज ही समझी जा सकती है। जिस शहर में अख़बार ख़ुद ही हॉबी क्लासेस चलायें और उसे ही सांस्कृतिक विकास का पैमाना मानें, उस शहर में सांस्कृतिक पत्रकारिता का यह हश्र तो होना ही था। और क्या कहें सिवाय इसके कि "बक रहा हूँ जुनून में क्या-क्या, कुछ न समझे खुदा करे कोई"।

Tuesday 17 June, 2008

सिर्फ़ उर्दू जानने वालों के लिए खुशखबरी

दोस्तो,
पिछले बरस हम लोग पाकिस्तान गए थे। उस वक्त खानपुर में एक जलसे में यह गुजारिश की गयी थी कि भारत आई.टी की दुनिया में सरताज है, लेकिन अभी तक कोई ऐसा प्रोग्राम नहीं बनाया गया है जिससे हिन्दी-उर्दू में लिखा हुआ दोनों ज़ुबानों के लोग पढ़ सकें। टू दोस्तों इंतज़ार की घडियाँ ख़त्म हुईं। अब उर्दू समझाने वाले दोस्त आसानी से हिन्दी यूनिकोड फॉण्ट की सामग्री उर्दू में पढ़ सकते हैं। आप बस ह्त्त्प://मलेर्कोतला.ओआरजी/त्रन्श२उ/अस्प्क्स लिंक पर जाएं और हिन्दी से उर्दू में ट्रांस्लितेरतेकर अपनी जुबान में पढ़ें। फिलहाल यह सुविधा उर्दू वालों के लिए ही है। उम्मीद है जल्द ही हिन्दी वालों को भी उर्दू साहित्य हिन्दी में पढ़ने को मिल जायेगा। इस काम के लिए अब्दुर रशीद नंदन को तहे दिल से शुक्रिया जरूर कहिये।

Monday 16 June, 2008

अशोक शास्त्री स्मृति व्याख्यान २२ जून,२००८ को

प्रख्यात पत्रकार लेखक अशोक शास्त्री का पिछले दिनों असामयिक निधन हो गया था। उनकी स्मृति को नमन करते हुए जयपुर में उनके दोस्त-साथी-परिजन रविवार २२ जून, २००८ को सुबह ११.३० बजे पिंकसिटी प्रेस क्लब जयपुर में प्रथम अशोक शास्त्री स्मृति व्याख्यान आयोजित कर रहे हैं। वरिष्ठ आलोचक डॉ विश्व नाथ त्रिपाठी इस अवसर पर मुख्य वक्ता होंगे। जनकवि हरीश भादानी कार्यक्रम की अध्यक्षता करेंगे। व्याख्यान का विषय है "साहित्य और पत्रकारिता : अंतर्संबंध और अंतर्विरोध"।
अशोक शास्त्री के बारे में ज्यादा जानने के लिए उन पर लिखा श्रधांजलि आलेख मेरे प्रोफाइल में जाकर दूसरे ब्लॉग पर पर पढ़ सकते हैं।

Friday 23 May, 2008

हम-शहरी शीर्षक से एक नया ब्लॉग

मेरे प्रिय दोस्तो,
आपको जान कर बेहद खुशी होगी कि मैंने हमारे पाकिस्तानी दोस्तों द्वारा लाहौर से शुरू की गयी नयी पत्रिका "हम शहरी" में दक्षिण एशिया में होने वाली सामाजिक सांस्कृतिक घटनाओं पर एक कालम लिखना शुरू किया है। अपने भारतीय मित्रों के लिए मैं उस कालम में लिखी गयी सामग्री को एक नए ब्लॉग पर चस्पां करने जा रहा हूँ । उम्मीद है आप सब को मेरी कोशिश पसंद आएगी। नए ब्लॉग का पता आप मेरे प्रोफाइल में जाकर देख सकते हैं। इस कालम को मेरे पाकिस्तानी दोस्त जिस कदर पसंद कर रहे हैं, आप भी मेरी कोशिशों को उसी तरह उम्मीद है पसंद करेंगे।
आपका
प्रेम चन्द गांधी

Wednesday 21 May, 2008

एक उदास शहर का दर्द उर्फ़ गुलाबी शहर की मायूसी

ना जाने वो कौन जालिम थे जो मेरे प्यारे गुलाबी शहर की खुशियाँ नोच कर ले गए। मैं एक उदास शहर का बाशिंदा हूँ और उतना ही ग़मगीन भी किअपने ही शहर कि दीवारों को देखते हुए भयानक डर लगता है। मैं अपने शहर से बात करना चाहता हूँ लेकिन हिम्मत ही नहीं होती। इस लिए अपनी बात एक खुली चिट्ठी के मार्फ़त कहना चाहता हूँ। यह चिट्ठी आज लिखने की शुरुआत हुई है और उम्मीद करता हूँ कि कल तक पूरी लिख दी जायेगी।
मेरे प्यारे गुलाबी शहर,
तुम्हें मैं हमेशा अपनी साँसों में वैसे ही महसूस करता हूँ जैसे बकौल मिर्जा गालिब ---
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल
जो आँख ही से ना टपका तो फ़िर लहू क्या है

Wednesday 14 May, 2008

अशोक शास्त्री की याद में ...

अब वो रानाई-ए-ख़याल कहां¡
प्रेमचन्द गां¡धी
कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन पर कभी यकीन नहीं आता यह जानते हुए भी कि यही सच है। अशोक शास्त्री नहीं रहे विश्वास नहीं होता। बार-बार जेहन में मिर्जा गालिब का एक शेर गूंजता है-
थी वो इक शख्स के तसव्वुर से
अब वो रानाई-ए-ख़याल कहा¡
सचमुच उस शख्स में एक जादू था जिसमें बं¡धकर हर कोई खिंचा चला आता था। उस जादू को आखिर क्या नाम दिया जाये? गौरवर्ण, मेधा और ज्ञान से दिपदिपाता चेहरा, कपड़ों से झां¡कती सादगी भरी नफासत और वाणी के माधुर्य में घुले शब्दों से झलकती विद्वता किसी को भी एक पल में ही बां¡ध लेने के लिए काफी थी। हरदम अपनी वाग्मिता और ज्ञान की चुटकियों से चमत्कृत करने वाले अशोक शास्त्री आज हमारे बीच नहीं हैं। जयपुर की साहित्यिक-सांस्कृतिक बिरादरी में एक कभी न खत्म होने वाला सन्नाटा छाया हुआ है।
अशोक शास्त्री अलवर से जयपुर आने वाले पत्रकारों की उस पीढ़ी के नायक थे जिसने राजस्थान की पत्रकारिता में अपना एक खास मुकाम बनाया है। अशोक शास्त्री, जगदीश शर्मा और ईशमधु तलवार की एक तिकड़ी थी और इस तिकड़ी में जगदीश शर्मा और ईशमधु तलवार जयपुर आने वाले शुरुआती पत्रकार थे। अशोक शास्त्री इनके बाद जयपुर आये। अलवर में अशोक शास्त्री ने पत्रकारिता के क्षेत्र में जो काम किया, वह आज एक इतिहास बन चुका है। इतिहास इस रूप में कि पत्रकारिता में अब वैसा दौर शायद कभी नहीं लौट सकेगा। अशोक शास्त्री ने तरुण अवस्था में वो काम किया जिसे बड़े-बड़े लोग नहीं कर पाते। दैनिक ‘अरानाद’ के युवा सम्पादक अशोक शास्त्री ने स्थानीय जरुरतों के लिहाज से पाठकों की अपेक्षा और आकांक्षाओं की पूर्ति करते हुए अलवर के इतिहास का उस जमाने में एक ऐसा लोकप्रिय अखबार निकाला जिसकी अलवर शहर में प्रसार संख्या उस वक्त प्रदेश के सबसे बड़े अखबार से भी ज्यादा थी। ‘अरानाद’ एक सहकारी प्रयास था जिसमें कर्मठ और प्रतिबद्ध लोगों की थोड़ी-थोड़ी पूं¡जी लगी हुई थी। लेकिन बड़ी पूं¡जी के आगे आखिर कब तक यह सहकारी प्रयास टिक सकता था? आखिरकार जब सारी पूं¡जी खत्म हो गई तो मास्टर बंशीधर जी ने अपने प्रेस में अखबार को इस तिकड़ी के कहने पर तीन दिन और छापा। बंषीधर जी कवि ऋतुराज और लेखक सुरेश पंडित के ससुर थे।
अशोक शास्त्री एक प्रयोग की असफलता से घबराने वाले नहीं थे। कुछ अरसे बाद उन्होंने एक और प्रयास किया तो साप्ताहिक ‘कुतुबनामा’ का आगाज हुआ। तीखे राजनैतिक तेवर और गहरी साहित्यिक-सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पन्न इस साप्ताहिक ने जल्दी ही प्रान्तीय स्तर पर अपनी पहचान बना ली थी। इस प्रयोग में प्रदेश के अनेक युवा पत्रकार जुड़े। लेकिन एक-एक कर तीनों मित्रों के जयपुर आने से ‘कुतुबनामा’ को भी इतिहास में दर्ज होना पड़ा। अशोक शास्त्री जयपुर आये तो राजस्थान पत्रिका और इतवारी पत्रिका में सम्पादकीय दायित्वों के तहत इन पत्रों को अपनी साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि से पूरित कर एक नयी दृष्टि दी। यह अशोक शास्त्री की कोशिशों का ही नतीजा था कि पूरे प्रान्त की सृजनात्मक प्रतिभाओं को राजस्थान पत्रिका प्रकाशनों के माध्यम से एक राज्यव्यापी मंच मिला। इतवारी पत्रिका को राष्ट्रीय स्तर पर एक गम्भीर दृष्टिसम्पन्न साप्ताहिक के रूप में पहचाना गया। उस वक्त राजस्थान पत्रिका और इतवारी पत्रिका में लिखने वाले लेखक-पत्रकार आज देश के शीर्षस्थ लेखकों में गिने जाते हैं मसलन ओम थानवी, राजकिशोर और प्रयाग शुक्ल।
पढने और नये-नये विषयों में यूं तो अशोक शास्त्री की रूचि बहुत पहले से थी लेकिन इन्हीं दिनों अशोक शास्त्री की दिलचिस्पयों में साहित्य शीर्ष पर आया। वे सामान्य पत्रकारिता से हटकर गम्भीर साहित्य की ओर उन्मुख हुए। कृष्ण कल्पित, सत्यनारायण, संजीव मिश्र, विनोद पदरज, राजेन्द्र बोहरा, मनु शर्मा, मन्जू शर्मा, लवलीन, अजन्ता और सीमन्तिनी राघव के सम्पर्क से राजस्थान विश्वविद्यालय में अशोक शास्त्री जल्द ही एक लोकप्रिय व्यक्ति बन गये। राजस्थान पत्रिका के साथ-साथ विश्वविद्यालय भी उनकी बैठकबाजी का नया केन्द्र बन गया था। यहीं महान साहित्यकार रांगेय राघव की कवयित्री पुत्री सीमन्तिनी से उनकी मैत्री विवाह सम्बन्ध में बदली।
यह अशोक शास्त्री के जीवन का नया दौर था जिसमें उन्हें कुछ असाधारण काम करने थे। सबसे पहले उन्होंने उस परिवार का दायित्व सं¡भाला जिससे जुड़कर उनके भीतर के रचनात्मक पत्रकार को गहरा सुकून मिलना था। अशोक शास्त्री ने स्वर्गीय रांगेय राघव के प्रकाशित-अप्रकाशित लेखन को खोजा- ढू¡ढा और सम्पादित कर व्यवस्थित रूप से प्रकाशित कराया। रांगेय राघव की मृत्यु के बाद उनके साहित्य को प्रकाश में लाने का जितना श्रेय श्रीमती सुलोचना रांगेय राघव का है उतना ही अशोक शास्त्री का भी। अशोक जी चाहते थे कि रांगेय राघव को प्रत्येक माध्यम में ले जाया जाये। इसलिये जब ‘कब तक पुकारू¡’ पर टीवी धारावाहिक बनाने की बात आई तो कृति के साथ एक माध्यम में अन्याय न हो इसी वजह को ध्यान में रखते हुए अशोक शास्त्री ने स्वयं पटकथा लिखने की ठानी। आज भारतीय टेलीविजन इतिहास के कुछ अविस्मरणीय धारावाहिकों में ‘कब तक पुकारूं’ का नाम अशोक शास्त्री की प्रतिभा और परिश्रम के कारण भी है। इन दिनों अशोक शास्त्री रांगेय राघव के उपन्यास ‘पथ का पाप’ पर एक फीचर फिल्म की स्क्रिप्ट को अन्तिम रूप दे रहे थे। सम्भवत: वे यह फिल्म गोविन्द निहलानी के लिए लिख रहे थे।
अशोक शास्त्री जितना पढाकू लेखक-पत्रकार देश भर में ढू¡ढना मुश्किल है। उनके अध्ययन में कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण और आलोचना जैसी साहित्यिक विधाएं ही नहीं बल्कि धर्म, दर्शन, पुराण, उपनिषद, अध्यात्म, चित्रकला, सिनेमा, संगीत, जादू-टोना, भूत-प्रेत और विश्व साहित्य की विख्यात और कमख्यात कृतियों से लेकर दुनिया भर की लोक कथाएं भी शामिल थीं। एक इतालवी लोक कथा उन्होंने रंगकमीZ साबिर खान को सुनाई तो एक नाट्य कार्यशाला में उस पर राजस्थान का मशहूर नाटक तैयार हुआ ‘और रावण मिल गया’ जिसे अशोक राही ने लिखा था।
अशोक शास्त्री की एक खासियत थी कि वे जितना पढते थे उसे सहज-सरल शब्दों में रोज शाम अपने दोस्तों के बीच सुनाते भी थे। इस तरह उन्होंने जयपुर में पता नहीं कितने मित्रों को विश्व साहित्य की महानतम कृतियों से परिचित कराया। पिंकसिटी प्रेस क्लब में एक दौर में उनकी शाम की महफिलों में आने वाले दोस्तों के लिए ताजा पढ़ी-लिखी रचना का परिचय देना जरुरी हो गया था। एक दफा तो उन्होंने शाम को नया शेर सुनाने की परम्परा ही डाल दी थी। इस तरह उनकी शाम की महफिलें केवल बतौलेबाजी की ही नहीं ज्ञान और अध्ययन की भी महफिलें थीं। अनेक लेख-पत्रकार रोज नये शेरों से लैस होकर आते थे।
बहुत कम लोगों को पता है कि अशोक शास्त्री सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अद्भुत योजनाकार भी थे। उनके द्वारा बनाये गये डिजाइन पर जयपुर में दो अविस्मरणीय कार्यक्रम हुए। कवि ऋतुराज को `पहल सम्मान दिये जाने के अवसर पर कार्यक्रम में आये अतिथि रचनाकारों के लिए जयपुर के लेखक-पत्रकार-कलाकारों की ओर से एक शानदार पार्टी आयोजित की गई थी। ....इसी तरह जब कट्टरपंथियों ने मकबूल फिदा हुसैन के सरस्वती चित्र पर हल्ला मचाया तो अशोक जी ने अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थन में एक अनूठा विरोध-प्रदर्शन डिजाइन किया। इसमें शहर के हृदय स्थल स्टेच्यू सकिZल पर एक दिन का धरना दिया गया। धरने में चित्रकारों के साथ लेखक, पत्रकार, रंगकर्मीZ और बुद्धिजीवियों के साथ आम लोगों ने भी शिरकत की थी। हुसैन के सरस्वती चित्र की ढेरों प्रतिया¡ बां¡टी गई। चित्रकारों ने चित्र बनाए, कवियों ने कविताएं सुनाईं, कलाकारों ने गीत गाये और एक बड़े कैनवस पर हुसैन के समर्थन में हस्ताक्षर किये गये। इस विरोध-प्रदर्शन में यू¡ तो सभी संगठनों के लोग शामिल थे लेकिन अशोक जी चाहते थे कि इसे किसी संगठन विशेष या समूह के बजाय सामूहिक सांस्कृतिक प्रतिरोध की तरह जाना जाये। वे हुसैन का समर्थन सांस्कृतिक और संवैधानिक धरातल पर आमजन के साथ किये जाने के पक्षधर थे। उस रोज पुलिस-प्रशासन और गुप्तचर विभाग के लोग दिन भर पूछते रहे कि आखिर इस धरने की आयोजक संस्था और उसके पदाधिकारी कौन हैं। बकौल अशोक जी उस दिन एक नई फाइल खुली होगी जिसमें इतने ज्वलन्त मुद्दे पर व्यापक जनभागीदारी को रेखांकित किया गया होगा। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि इन दोनों आयोजनों के लिए खुद अशोक जी ने भी चन्दा इकट्ठा किया था।
प्रेस क्लब में एक बार उन्होंने नये निर्माण के लिए पेड़ काटे जाने के खिलाफ जबर्दस्त आन्दोलन चलाया। उस आन्दोलन के चलते प्रेस क्लब चुनावों में वोटों की राजनीति की एक विचित्र शुरुआत हुई, जिसे आज हम फलता-फूलता देख रहे हैं। ....इसे सिवा दुर्भाग्य के क्या कहा जाये कि हमारे यहा¡ दिवंगतों को श्रद्धांजलि देने का भी लोगों में सलीका नहीं है। जिस प्रेस क्लब को अशोक जी बुद्धिजीवियों का केन्द्र बनाने का प्रयास कर रहे थे, वहीं आयोजित शोक सभा में लोगों ने मृत्यु के कारणों की चर्चा के बहाने अशोक शास्त्री की तमाम उपलब्धियों को नकारते हुए सारी चर्चा क्लब और मदिरापान पर केन्द्रित कर दी। इस किस्म के त्वरित मूल्यांकनों से कभी सही नतीजों पर नहीं पहु¡चा जा सकता, क्योंकि कल लोगों के खान-पान में सिगरेट-जर्दा-पान-सुपारी-मीठा-नमकीन-दूध-चाय-कॉफी जैसे बहानों को मृत्यु का कारक मान लिया जाएगा।
आज इण्डियन कॉफी हाउस और प्रेस क्लब की वो जगहें खामोश हैं जहा¡ कभी अशोक जी के ठहाके गू¡जते थे या ज्ञान की सरिता बहती थी। क्लब में वो शीशम का वो पेड़ तो पहले ही कट चुका था जिसके साये में अशोक जी की महफिल जमती थी। अपने आखिरी दिनों में उन्होंने क्लब में अपने लिए छत चुनी थी वो भी शायद मजबूरी में क्योंकि उस छत से भी वो हाहाकारी बाजार दिखता था जिसे अशोक जी सख्त नापसंद करते थे। आज उस शख्स की गैर मौजूदगी में ना प्रेस क्लब जाने का मन करता है और न ही उन किताबों को देखने का जिन पर उन्होंने लिखा था – प्रे च के लिए : अ शा। अपने आखिरी दिनों में अशोक जी ने मुझसे इरविंग स्टोन की ‘लस्ट फॉर लाइफ ‘का हिन्दी अनुवाद जयपुर में तलाश करने के लिए कहा था। जीवन के प्रति ऐसी उत्कट अभिलाषा लिए खूबसूरत खयालों वाला शख्स आज हमारे बीच नहीं है तो लगता है कि मिर्जा गालिब ने यह शेर अशोक जी जैसे लोगों के लिए ही लिखा था:
थी वो इक शख्स के तसव्वुर से
अब वो रानाई-ए-खयाल कहां¡।